भवतीत्यावेद–यन्नुपसंहरति–
ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।। ३८ ।।
अहमेकः खलु शुद्धो दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी।
नाप्यस्ति मम किञ्चिदप्यन्यत्परमाणुमाक्रमपि।। ३८ ।।
हवे, ए रीते दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत थयेलास आ आत्माने स्वरूपनुं संचेतन केवुं होय छे एम कहेतां आचार्य आ कथनने संकोचे छे, समेटे छेः-
कंइ अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे! ३८.
गाथार्थः– दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमेलो आत्मा एम जाणे छे केः [खलु] निश्चयथी [अहम्] हुं [एकः] एक छुं, [शुद्धः] शुद्ध छुं, [दर्शनज्ञानमयः] दर्शनज्ञानमय छुं, [सदा अरूपी] सदा अरूपी छुं; [किञ्चित् अपि अन्यत्] कांई पण अन्य परद्रव्य [परमाणुमाक्रम् अपि] परमाणुमात्र पण [मम न अपि अस्ति] मारुं नथी ए निश्चय छे.
टीकाः– जे, अनादि मोहरूप अज्ञानथी उन्मत्तपणाने लीधे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो अने विरक्त गुरुथी निरंतर समजाववामां आवतां जे कोई प्रकारे (महा भाग्यथी) समजी, सावधान थई, जेम कोई मूठीमां राखेलुं सुवर्ण भूली गयो होय ते फरी याद करीने ते सुवर्णने देखे ते न्याये, पोताना परमेश्वर (सर्व सामर्थ्यना धरनार) आत्माने भूली गयो हतो तेने जाणीने, तेनुं श्रद्धान करीने तथा तेनुं आचरण करीने (-तेमां तन्मय थईने) जे सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम थयो, ते हुं एवो अनुभव करुं छुं केः हुं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा छुं के जे मारा ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे; चिन्मात्र आकारने लीधे हुं समस्त क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे हुं एक छुं; नर, नारक आदि जीवना विशेषो, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्षस्वरूप जे व्यावहारिक नव तत्त्वो तेमनाथी,