Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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गाथा ३७ ] [ २११ हतो ते परज्ञेयथी पण भिन्न छे. हवे ते आवो विवेक-भेदज्ञान करीने गुलांट खाय छे के विकार अने परज्ञेय ते हुं नहि, हुं तो निर्विकारी स्वज्ञेय छुं. आम भेदज्ञान करी ज्ञानी पोताना आत्मारूपी क्रीडावनमां प्रवृत्ति करे छे. आ तो व्यवहारथी भेद पाडीने समजाव्युं छे. खरेखर तो उपयोग आत्मरूप ज थई जाय छे. उपयोग आत्मामां ज क्रीडा करे छे, अन्य जग्याए जतो नथी. एटले के जाणवा-देखवाना स्वरूपमां एकाकार थयो तेथी हवे राग अने परमां जतो नथी. अर्थात् ‘राग अने पर मारां छे’ एम मान्यता सहित उपयोग मलिन थतो नथी. आनुं नाम आत्मा जाण्यो एम कहेवामां आवे छे.

पोताने जे रागरूप अने परज्ञेयरूप माने छे तथा आ स्त्री, पुत्र, परिवार, धन- दोलत, महेल, हजीरा इत्यादि पोताना माने छे तेनुं आखुं जीवन ज मरी गयुं छे. अंदरमां जेणे विकारने अने परने पोतानां मान्यां छे ते आत्माना भान विना मरी गयेलो ज छे. भगवान आनंदनो नाथ जीवती चैतन्यज्योति छे. तेना जीवने जीवित न राखतां राग अने पर मारां छे एम मानीने तेणे पोताना जीवननी हिंसा करी छे. आवो जिनेश्वरदेवनो वीतराग मार्ग सांभळवा मळवो य मुश्केल छे. पछी तेनी समजण करी स्वरूपनां श्रद्धा-ज्ञान-रमणता करवां ए तो अति अति महामुश्केल छे. आ तो जन्म-मरण मटाडवानो मार्ग छे. सो इन्द्रोथी पूजित भगवान जिनेश्वरदेवनी दिव्यध्वनिमां आवेली आ वात छे. तेने छोडीने जे बीजे ज्यां-त्यां आथडे छे ते पाखंडमां रमे छे.

* कळश ३१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

सर्व परद्रव्योथी तथा तेमनाथी उत्पन्न थयेला भावोथी अर्थात् ज्ञेय एवा परद्रव्योथी अने भावकना भावथी ज्यारे भेद जाण्यो त्यारे उपयोगने रमवाने माटे पोतानो आत्मा ज रह्यो. अहाहा! हुं तो चैतन्यसूर्य भगवान चैतन्यना तेजना नूरनुं पूर छुं अने आ रागादि भावो अने परज्ञेयो माराथी भिन्न छे, मारामां नथी आवुं ज्यारे भेदज्ञान कर्युं त्यारे उपयोग एक आत्मामां ज लीन थयो अने जामी गयो. केमके तेने रमवाने आत्मा सिवाय कोई अन्य स्थान रह्युं नहि. आ रीते दर्शन-ज्ञान-चारित्र साथे एकरूप थयेलो ते आत्मा आत्मामां ज रमणता करे छे. अहाहा! टूंकामां पण केटलुं भर्युं छे?

[प्रवचन नं. ८३-८४. * दिनांक २१-२-७६ थी २२-२-७६]