गाथा ३८ ] [ २१प
इतिश्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पूर्वरङ्गः समाप्तः। ____________________________________________________________
निजानंद रसमें छको, आन सबै छिटकाय.
आ प्रमाणे (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसार शास्त्रनी (श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित) आत्मख्याति नामनी टीकामां पूर्वरंग समाप्त थयो.
भगवान आत्मा विकारना भावोथी अने ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान करी भिन्न पडतां पोताना स्वरूपनी प्रतीति-ज्ञान रमणतारूपे परिणम्यो. त्यां दर्शन-ज्ञान- चारित्रस्वरूप परिणत थयेला आत्माने स्वरूपनुं संचेतन-वेदन केवुं होय छे एनुं कथन करतां आचार्यदेव हवे (३८ मी गाथामां) संकोचे छेः-
‘जे, अनादि मोहरूप अज्ञानथी उन्मत्तपणाने लीधे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो’- शुं कह्युं? के अनादि मोहरूप अज्ञानने लईने जीव चारगतिमां रखडे छे. जुओ, अहीं एम नथी कह्युं के अनादि कर्मने लईने रखडे छे. कर्म बिचारां शुं करे? मोहरूप अज्ञानना कारणे तेने उन्मत्तपणुं छे. पोते आनंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु भगवान छे तेने भूलीने पुण्य-पापना परिणाम अने तेना फळने पोतानां माने तेने उन्मत्त एटले पागल कह्यो छे. आ शेठिया बधा जे एम माने के अमे करोडपति अने अजबपति अने गौरव करे ते बधा मोहथी उन्मत्त-पागल छे एम अहीं कहे छे. पोताना स्वरूपनी सावधानी छोडीने जीव विकार अने संयोगी चीजमां सावधान थई रह्यो छे ए मिथ्यात्व-मोह छे.
‘अनादि मोहरूप अज्ञानथी....’ ए शब्दोथी पहेलां शरु कर्युं छे. आ गाथामां जीव अधिकार पूरो करवो छे ने? एटले जीवनुं पूर्णस्वरूप प्राप्त थाय त्यारे केवो होय अने ए पहेलांनी एनी भूल केवी होय ए बतावे छे. पैसा, धन-दोलत, आबरूमां मजा-आनंद मानतो ते मोह वडे पागल हतो, अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो. अहाहा! आत्मा एक समयमां ज्ञान, आनंद इत्यादि अनंत अनंत शक्तिओनो पिंड छे. पण एना उपर एनी अनंतकाळमां नजर गई नथी, केमके वर्तमान पर्याय जे व्यक्त-प्रगट छे तेना उपर एनी नजर छे. जैननो साधु थयो, दिगंबर मुनि थयो, जंगलमां रह्यो, पण एनी द्रष्टिनुं जोर वर्तमान पर्याय उपर ज रह्युं; केमके पर्यायनो जे अंश छे ए प्रगट छे, तेने ख्यालमां आवे छे तेथी तेमां ज रोकाई गयेलो छे. प्रगट पर्याय उपर द्रष्टि छे ते लंबाय तो राग अने पर उपर जाय छे. तेथी पर्यायनो, रागनो अने परनो ज तेने (आत्मापणे) स्वीकार छे. आ अनादि भ्रमणा अने अज्ञान छे अने ते वडे ते अप्रतिबुद्ध छे.