छे अने बौद्धो सत्ताने क्षणिक ज माने छे; तेमनुं निराकरण, सत्ताने उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यरूप कहेवाथी थयुं. वळी जीव केवो छे? चैतन्यस्वरूपपणाथी नित्यउद्योतरूप निर्मळ स्पष्ट दर्शन-ज्ञान-ज्योतिस्वरूप छे (कारण के चैतन्यनुं परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप छे). आ विशेषणथी, चैतन्यने ज्ञानाकारस्वरूप नहि माननार सांख्यमतीओनुं निराकरण थयुं. वळी ते केवो छे? अनंत धर्मोमां रहेलुं जे एकधर्मीपणुं तेने लीधे जेने द्रव्यपणुं प्रगट छे (कारण के अनंत धर्मोनी एकता ते द्रव्यपणुं छे). आ विशेषणथी, वस्तुने धर्मोथी रहित माननार बौद्धमतीनो निषेध थयो. वळी ते केवो छे? क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता अने भावो जेनो स्वभाव होवाथी जेणे गुणपर्यायो अंगीकार कर्या छे. (पर्याय क्रमवर्ती होय छे अने गुण सहवर्ती होय छे; सहवर्तीने अक्रमवर्ती पण कहे छे.) आ विशेषणथी, पुरुषने निर्गुण माननार सांख्यमतीओनो निरास थयो. वळी ते केवो छे? पोताना अने परद्रव्योना आकारोने प्रकाशवानुं सामर्थ्य होवाथी जेणे समस्त रूपने प्रकाशनारुं एकरूपपणुं प्राप्त कर्युं छे (अर्थात् जेमां अनेक वस्तुओना आकार प्रतिभासे छे एवा एक ज्ञानना आकाररूप ते छे). आ विशेषणथी, ज्ञान पोताने ज जाणे छे परने नथी जाणतुं एम एकाकार ज माननारनो, तथा पोताने नथी जाणतुं पण परने जाणे छे एम अनेकाकार ज माननारनो, व्यवच्छेद थयो. वळी ते केवो छे? अन्य द्रव्योना जे विशिष्ट गुणो- अवगाहन-गति-स्थिति-वर्तनाहेतुपणुं अने रूपीपणुं-तेमना अभावने लीधे अने असाधारण चैतन्यरूपता-स्वभावना सद्भावने लीधे आकाश, धर्म, अधर्म, काळ अने पुद्गल-ए पांच द्रव्योथी जे भिन्न छे. आ विशेषणथी, एक ब्रह्मवस्तुने ज माननारनो व्यवच्छेद थयो. वळी ते केवो छे? अनंत अन्यद्रव्यो साथे अत्यंत एकक्षेत्रावगाहरूप होवा छतां पण पोताना स्वरूपथी नहि छूटवाथी जे टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप छे. आ विशेषणथी वस्तुस्वभावनो नियम बताव्यो. -आवो जीव नामनो पदार्थ समय छे.
ज्यारे आ (जीव), सर्व पदार्थोमां स्वभावने प्रकाशवामां समर्थ एवा केवळज्ञानने उत्पन्न करनारी भेदज्ञानज्योतिनो उदय थवाथी, सर्व परद्रव्योथी छूटी दर्शनज्ञानस्वभावमां नियत वृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्व साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे त्यारे दर्शनज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी युगपद् स्वने एकत्वपूर्वक जाणतो तथा स्व-रूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते ‘स्वसमय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे; पण ज्यारे ते, अनादि अविद्यारूपी जे केळ तेना मूळनी गांठ जेवो जे (पुष्ट थयेलो) मोह तेना उदय अनुसार प्रवृत्तिना आधीनपणाथी, दर्शनज्ञानस्वभावमां नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्वथी छूटी परद्रव्यना निमित्तथी उत्पन्न मोहरागद्वेषादि भावो साथे एकत्वगतपणे (एकपणुं मानीने) वर्ते छे त्यारे पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित होवाथी युगपद् परने एकत्वपूर्वक जाणतो तथा