२ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३
धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत्।। ३३ ।।
जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति।। ३९ ।।
मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति।। ४० ।।
_________________________________________________________________ [विलसति] प्रगट थाय छे. केवुं छे ते? [पार्षदान्] जीव-अजीवना स्वांगने जोनारा महापुरुषोने [जीव अजीव–विवेक–पुष्कल–द्रशा] जीव-अजीवनो भेद देखनारी अति उज्ज्वळ निर्दोष द्रष्टि वडे [प्रत्याययत्] भिन्न द्रव्यनी प्रतीति उपजावी रह्युं छे; [आसंसार– निबद्ध–बन्धन–विधि–ध्वंसात्] अनादि संसारथी जेमनुं बंधन द्रढ बंधायुं छे एवां ज्ञानावरणादि कर्मोना नाशथी [विशुद्धं] विशुद्ध थयुं छे, [स्फुटत्] स्फूट थयुं छे-जेम फूलनी कळी खीले तेम विकासरूप छे. वळी ते केवुं छे? [आत्म–आरामम्] जेनुं रमवानुं क्रीडावन आत्मा ज छे अर्थात् जेमां अनंत ज्ञेयोना आकार आवीने झळके छे तोपण पोते पोताना स्वरूपमां ज रमे छे; [अनन्तधाम] जेनो प्रकाश अनंत छे; [अध्यक्षेण महसा नित्य–उदितं] प्रत्यक्ष तेजथी जे नित्य उद्रयरूप छे. वळी केवुं छे? [धीरोदात्तम्] धीर छे, उद्रात्त (उच्च) छे अने तेथी [अनाकुलं] अनाकुळ छे-सर्व इच्छाओथी रहित निराकुळ छे. (अहीं धीर, उदात्त, अनाकुळ-ए त्रण विशेषणो शांतरूप नृत्यनां आभूषण जाणवां.) एवुं ज्ञान विलास करे छे.
तेमने आ ज्ञान ज भिन्न जाणे छे. जेम नृत्यमां कोई स्वांग आवे तेने जे यथार्थ जाणे तेने स्वांग करनारो नमस्कार करी पोतानुं रूप जेवुं होय तेवुं ज करी ले छे तेवी रीते अहीं पण जाणवुं. आवुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टि पुरुषोने होय छे; मिथ्याद्रष्टि आ भेद जाणता नथी. ३३.
हवे जीव-अजीवनुं एकरूप वर्णन करे छेः-
‘छे कर्म, अध्यवसान ते जीव’ एम ए निरूपण करे! ३९.
एने ज माने आतमा, वळी अन्य को नोकर्मने! ४०.