१० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३
परमार्थरूप भगवान आत्मा तो शुभाशुभभावथी पार शुद्ध, शुद्ध, शुद्ध एवी एक शुद्धतानो-पवित्रतानो पिंड छे. आवो जे परमात्मा शुद्ध छे तेने एवो शुद्ध नहि जाणतां घणा अज्ञानीजनो, श्रावक अने साधु नाम धरावीने पण, पर एवा रागने, अध्यवसानने, विभावने आत्मा कहे छे. ए बधा नपुंसकपणे वर्तता अत्यंत विमूढ छे.
ते अज्ञानीओ एम कहे छे के शुभभाव शुद्धमां जवानी निसरणी छे. पहेलां अशुभथी छूटी शुभमां आवे, पछी ते वडे शुद्धमां जवाय-एम तेओ कहे छे. पण भाई, ए परमार्थे निसरणी नथी. शुं रागथी कदी वीतरागपणामां जवाय? राग दशानी दिशा पर तरफ छे, अने वीतरागदशानी दिशा स्व तरफ छे. बन्नेनी दिशा परस्पर विरुद्ध छे. जेनी दिशा विरुद्ध छे एने शुद्धभावनी निसरणी केम कहेवाय? पर तरफ डग मांडतां मांडतां स्वमां केम जवाय? शास्त्रोमां जे व्यवहारने निश्चयनुं साधन कह्युं छे ए तो निश्चय साथे जे व्यवहार निमित्तरूप होय छे तेनुं ज्ञान कराववा उपचारथी रह्युं छे.
शुभभावथी धर्म मनावे ए शास्त्र यथार्थ नथी. कुंदकुंदाचार्यदेवे बहु मोटेथी पोकारीने कह्युं छे के मुनि तो नग्न दिगंबर ज होय. वस्त्रसहित होय ते मुनि न होय. तेम छतां जे वस्त्रसहित मुनि मनावे, स्त्रीनो मोक्ष थवो मनावे, पंचमहाव्रतना परिणामथी निर्जरा थवी मनावे, एवी अनेक अन्यथा विपरीत वातो कहे ते शास्त्र जैनशास्त्र नथी, ते वीतराग शासन नथी. (आवा मिथ्या अभिप्रायो सघळा मिथ्यादर्शन छे).
वळी, कोई तो एम कहे छे के स्वाभाविक अर्थात् स्वयमेव उत्पन्न थयेला रागद्वेष वडे मेलुं जे अध्यवसान ते ज जीव छे, कारण के जेम काळापणाथी अन्य जुदो कोई कोलसो जोवामां आवतो नथी तेम एवा अध्यवसानथी जुदो अन्य कोई आत्मा जोवामां आवतो नथी. रागथी लाभ थाय एवो मिथ्या अभिप्राय ते अध्यवसान छे. ते अध्यवसानथी जुदो कोई आत्मा नथी एम कोई कहे छे.
आ अजीव अधिकार छे. रागादि विभाव परिणाम ए अजीव छे. जीव तो नित्य सच्चिदानंदस्वरूप छे. ए कांई विभावमां आवतो नथी.
वळी, कोई कहे छे के अनादि जेनो पूर्व अवयव छे अने अनंत जेनो भविष्यनो अवयव छे एवी जे एक संसरणरूप क्रिया ते-रूपे क्रीडा करतुं जे कर्म ते ज जीव छे, कारण के कर्मथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. (अथवा बीजी रीते लईए तो, वळी कोई कहे छे के अनादि अनंत जेनो परिपाटीरूप रागद्वेषरूप क्रियानो व्यापार छे, ते अवयवने धारण करनार अवयवी आत्मा रागद्वेषमय ज देखाय छे. अने चाल्या आवता द्रव्यकर्मनो प्रवाह तथा तेमां जोडाणरूप रागादि भावकर्म ते अनादि संतानरूप जेनुं स्वरूप छे, ते आत्मा छे, तेनाथी जुदुं स्वरूप अमने भासतुं नथी. जड कर्मनो उद्रय अने तेना संगे रागरूप क्रिया ए ज जेनुं अनादि अनंत कर्म छे, ते ज आत्मा छे,