१६ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३ जाणनाराओ तेमने सत्यार्थवादी कहेता नथी. वस्तुना स्वरूपने यथार्थ जाणनारा गणधरादि महंतो तेमने साचा कहेता नथी.
जीव-अजीव बन्ने अनादिथी एकक्षेत्रावगाहसंयोगरूप मळी रह्यां छे. बन्ने आकाशना एक क्षेत्रे रहेलां छे. अनादिथी ज जीवनी पुद्गलना संयोगथी अनेक विकार-सहित अवस्था थई रही छे. परमार्थद्रष्टिए जोतां जीव तो पोताना चैतन्यत्व आदि भावोने छोडतो नथी अने पुद्गल पोताना मूर्तिक, जडत्व आदिने छोडतुं नथी. आत्मा पोताना ज्ञान-दर्शनस्वरूप, आनंदस्वरूप, शांतस्वरूप, स्वच्छतास्वरूप इत्यादि निज स्वभावने कदीय छोडतो नथी. पर्यायमां अनेक प्रकारना विकारी भाव थवा छतां, वस्तु पोतानी अनंत शक्तिथी भरेलो जे एक चैतन्यस्वभाव छे तेने केम छोडे? जीव मटीने अजीव केम थाय? (कदीय न थाय). तेवी ज रीते पुद्गल पण पोतानुं जडत्व छोडी जीवरूप केम थाय? (न ज थाय).
जीव-अजीव सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावमां ज स्थित रहे एवी वस्तुना स्वरूपनी मर्यादा छे. परंतु जेओ परमार्थने जाणता नथी तेओ संयोगथी थयेला भावोने ज जीव कहे छे. परमार्थे जीवनुं स्वरूप, पुद्गलथी भिन्न सर्वज्ञने देखाय छे तेम ज सर्वज्ञनी परंपरानां आगमथी जाणी शकाय छे. तेथी जेमना मतमां सर्वज्ञ नथी तेओ पोतानी बुद्धिथी अनेक कल्पना करी कहे छे. वेदांती, मीमांसक, सांख्य योग, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतोना आशय लई आठ प्रकार तो प्रगट कह्या; अने अन्य पण पोतपोतानी बुद्धिथी अनेक कल्पना करी अनेक प्रकारे कहे छे ते कयां सुधी कहेवा?
एवुं कहेनारा सत्यार्थवादी केम नथी ते हवे आगळनी गाथामां कहे छेः-