१८ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३
इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलबि्ंधं प्रति विप्रतिपन्नः साम्नैवैवमनुशास्यः।
स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम्।
_________________________________________________________________ रागरसथी भरेलां अध्यवसानोनी संतति पण जीव नथी कारण के ते संततिथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ३. नवी पुराणी अवस्थादिकना भेदथी प्रवर्ततुं जे नोकर्म ते पण जीव नथी कारण के शरीरथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ४. समस्त जगतने पुण्यपापरूपे व्यापतो कर्मनो विपाक छे ते पण जीव नथी कारण के शुभाशुभ भावथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. प. शाता-अशातारूपे व्याप्त जे समस्त तीव्रमंदपणारूप गुणो ते वडे भेदरूप थतो जे कर्मनो अनुभव ते पण जीव नथी कारण के सुख-दुःखथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ६. शिखंडनी जेम उभयात्मकपणे मळेलां जे आत्मा अने कर्म ते बन्ने मळेलां पण जीव नथी कारण के समस्तपणे (संपूर्णपणे) कर्मथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ७. अर्थक्रियामां समर्थ एवो जे कर्मनो संयोग ते पण जीव नथी कारण के, आठ काष्टना संयोगथी (-खाटलाथी) जुदो जे खाटलामां सूनारो पुरुष तेनी जेम, कर्मसंयोगथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ८. (आ ज रीते अन्य कोई बीजा प्रकारे कहे त्यां पण आ ज युक्ति जाणवी.)
[भावार्थः– चैतन्यस्वभावरूप जीव, सर्व परभावोथी जुदो, भेदज्ञानीओने अनुभवगोचर छे; तेथी जेम अज्ञानी माने छे तेम नथी.]
अहीं पुद्गलथी भिन्न आत्मानी उपलब्धि प्रत्ये विरोध करनार (-पुद्गलने ज आत्मा जाणनार) पुरुषने (तेना हितरूप आत्मप्राप्तिनी वात कही) मीठाशथी (अने समभावथी) ज आ प्रमाणे उपदेश करवो एम काव्यमां कहे छेः-
श्लोकार्थः– हे भव्य! तने [अपरेण] बीजो [अकार्य–कोलाहलेन] नकामो