Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४६ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३

भावार्थः– परमार्थनय तो जीवने शरीर तथा रागद्वेषमोहथी भिन्न कहे छे. जो तेनो

एकांत करवामां आवे तो शरीर तथा रागद्वेषमोह पुद्गलमय ठरे अने तो पछी पुद्गलने घातवाथी हिंसा थती नथी अने रागद्वेषमोहथी बंध थतो नथी. आम, परमार्थथी जे संसार- मोक्ष बन्नेनो अभाव कह्यो छे ते ज एकांते ठरशे. परंतु आवुं एकांतरूप वस्तुनुं स्वरूप नथी; अवस्तुनुं श्रद्धान, ज्ञान, आचरण अवस्तुरूप ज छे. माटे व्यवहारनयनो उपदेश न्यायप्राप्त छे. आ रीते स्याद्वादथी बन्ने नयोनो विरोध मटाडी श्रद्धान करवुं ते सम्यक्त्व छे.

* समयसार गाथा ४६ः मथाळुं *

हवे पूछे छे के-जो अध्यवसान आदि भावो छे ते पुद्गलस्वभावो छे तो सर्वज्ञना आगममां तेमने जीवपणे केम कहेवामां आव्या छे? आ शुभाशुभ भावो, पुण्य-पापना भावो, सुख-दुःखना वेदननी कल्पना इत्यादि भावोने अहीं पुद्गलस्वभावो कह्या. परंतु सर्वज्ञना आगममां तेमने जीवपणे कह्या छे; जेमके कषाय आत्मा, योग आत्मा, इत्यादि. तो ए केवी रीते छे? बन्ने वात सर्वज्ञना आगमनी छे तो ए केवी रीते छे? एना उत्तररूपे गाथासूत्र कहे छेः-

* समयसार गाथा ४६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

आ बधाय अध्यवसानादि भावो जीव छे एवुं जे भगवान सर्वज्ञदेवोए कह्युं छे ते, जोके व्यवहारनय अभूतार्थ छे तोपण, व्यवहारनयने पण दर्शाव्यो छे; कारण के जेम म्लेच्छभाषा म्लेच्छोने वस्तुस्वरूप जणावे छे तेम व्यवहारनय व्यवहारी जीवोने परमार्थनो कहेनार छे तेथी, अपरमार्थभूत होवा छतां पण, धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति करवा माटे (व्यवहारनय) दर्शाववो न्यायसंगत ज छे.

शुं कहे छे? पहेलां जे आठ बोलथी कह्या हता ने?-ए बधा अध्यवसानादि भावो जीव छे एम सर्वज्ञदेवोए व्यवहारनय कह्यो छे. (व्यवहारनयथी कह्युं छे). जोके व्यवहारनय अभूतार्थ छे, त्रिकाळी स्वभावनी अपेक्षाए पर्यायभावो अभूतार्थ छे तोपण व्यवहारनयने पण दर्शाव्यो छे केमके व्यवहारनय व्यवहारी जीवोने परमार्थनो कहेनार छे. व्यवहारनय पोते परमार्थभूत नथी, पण परमार्थनो कहेनार छे. जरा अटपटी वात छे. पर्यायमां जे रागद्वेष छे, पुण्य-पापना भावो छे ते स्वभावनी द्रष्टिमां अपरमार्थभूत होवा छतां पर्यायमां धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति करवा माटे पर्यायने दर्शाववी, व्यवहारनयने दर्शाववो न्यायसंगत ज छे.

पर्याय पण (अस्तिपणे) छे, चौद गुणस्थानो छे. जो गुणस्थानो नथी एम कोई कहे तो व्यवहारनो निषेध थई जाय. अने चोथुं, पांचमुं, छठ्ठुं इत्यादि जे गुणस्थानो छे तेनो निषेध थई जतां धर्मतीर्थनो (मोक्षमार्गनो) ज निषेध थई जाय. धर्मतीर्थनी