Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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९० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३

(शालिनी)
वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो द्रष्टाः स्युर्द्रष्टमेकं परं स्यात्।। ३७ ।।

_________________________________________________________________ होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २७. पर्याप्त तेम ज अपर्याप्त एवां बादर ने सूक्ष्म एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय अने संज्ञी तथा असंज्ञी पंचेंद्रिय जेमनां लक्षण छे एवां जे जीवस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २८. मिथ्याद्रष्टि, सासादन सम्यग्द्रष्टि, सम्यग् मिथ्याद्रष्टि, असंयतसम्यग्द्रष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण-उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादरसांपराय-उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्मसांपराय-उपशमक तथा क्षपक उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवळी अने अयोगकेवळी जेमनां लक्षण छे एवां जे गुणस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २९. (आ प्रमाणे आ बधाय पुद्गलद्रव्यना परिणाममय भावो छे; ते बधा, जीवना नथी. जीव तो परमार्थे चैतन्यशक्तिमात्र छे.)

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [वर्ण–आद्याः] जे वर्णादिक [वा] अथवा [राग–मोह–आदयः वा]

रागमोहादिक [भावाः] भावो कह्या [सर्वे एव] ते बधाय [अस्य पुंसः] आ पुरुषथी (आत्माथी) [भिन्नाः] भिन्न छे [तेन एव] तेथी [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः] अंतर्दष्टि वडे जोनारने [अमी नो द्रष्टाः स्युः] ए बधा देखाता नथी, [एकं परं द्रष्टं स्यात्] मात्र एक सर्वोपरी तत्त्व ज देखाय छे-केवळ एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ज देखाय छे.

भावार्थः– परमार्थनय अभेद ज छे तेथी ते द्रष्टिथी जोतां भेद नथी देखातो; ते

नयनी द्रष्टिमां पुरुष चैतन्यमात्र ज देखाय छे. माटे ते बधाय वर्णादिक तथा रागादिक भावो पुरुषथी भिन्न ज छे.

आ वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत जे भावो छे तेमनुं स्वरूप विशेषताथी जाणवुं होय तो गोम्मटसार आदि ग्रंथोमांथी जाणी लेवुं. ३७.

* श्री समयसार गाथा प० थी पपः मथाळुं *

भगवान आत्मा आनंदनो नाथ नित्यानंद प्रभु ध्रुव छे. तेने आ बधा भावो जे चैतन्यशक्तिथी शून्य छे ते नथी. ते बधाय भावो पुद्गलना परिणाम छे तेम छ गाथाओमां कहे छेः-