ननु वर्णादयो यद्यमी न सन्ति जीवस्य तदा तन्त्रान्तरे कथं सन्तीति प्रज्ञाप्यन्ते इति चेत्–
गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स।। ५६ ।।
व्यवहारेण त्वेते जीवस्य भवन्ति वर्णाद्याः।
गुणस्थानान्ता भावा न तु केचिन्निश्चयनयस्य।। ५६ ।।
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हवे शिष्य पूछे छे के जो आ वर्णादिक भावो जीवना नथी तो अन्य सिद्धांतग्रंथोमां ‘ते जीवना छे’ एम केम कह्युं छे? तेनो उत्तर गाथामां कहे छेः-
पण कोई ए भावो नथी आत्मा तणा निश्चय थकी. प६.
भावार्थः– [एते] आ [वर्णाद्याः गुणस्थानान्ताः भावाः] वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यन्त भावो कहेवामां आव्या ते [व्यवहारेण तु] व्यवहारनयथी तो [जीवस्य भवन्ति] जीवना छे (माटे सूत्रमां कह्या छे), [तु] परंतु [निश्चयनयस्य] निश्चयनयना मतमां [केचित् न] तेमनामांना कोई पण जीवना नथी.
टीकाः– अहीं, व्यवहारनय पर्यायाश्रित होवाथी, सफेद रूनुं बनेलुं वस्त्र जे कसुंबा वडे रंगायेलुं छे एवा वस्त्रना औपाधिक भाव (-लाल रंग)नी जेम, पुद्गलना संयोगवशे अनादि काळथी जेनो बंधपर्याय प्रसिद्ध छे एवा जीवना औपाधिक भाव (-वर्णादिक) ने अवलंबीने प्रवर्ततो थको, (ते व्यवहारनय) बीजाना भावने बीजानो कहे छे; अने निश्चयनय द्रव्यना आश्रये होवाथी, केवळ एक जीवना स्वाभाविक भावने अवलंबीने प्रवर्ततो थको, बीजाना भावने जरा पण बीजानो नथी कहेतो, निषेध करे छे. माटे वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत जे भावो छे ते व्यवहारथी जीवना छे अने निश्चयथी जीवना नथी एवुं (भगवाननुं स्याद्वादवाळुं) कथन योग्य छे.
हवे शिष्य पूछे छे के जो आ वर्णादिक भावो जीवना नथी तो अन्य सिद्धांतग्रंथोमां ‘ते जीवना छे’ एम केम कह्युं छे? तत्त्वार्थसूत्रमां तो राग-द्वेष आदि उदयभावने जीवना कह्या छे. अने आप कहो छो के ते जीवने नथी. तो ए केवी रीते छे? तेनो उत्तर गाथामां कहे छेः-