Pravach Ratno Part 1-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 120 (Niyamsar); Date: 25-11-1979; Shastra: Niyamsar; Pratibhas Sambandhi Thodu; JinvaniMathi; GuruvaniMathi; The End.

< Previous Page  


Combined PDF/HTML Page 24 of 24

 

Page 218 of 225
PDF/HTML Page 231 of 238
single page version

२१८ श्री प्रवचन रत्नो -१

तन्मय थया विना ज्ञान जाणे ज नही!

... आ शरीर छे ते शरीरमां जणाय छे? के आत्मानी ज्ञान पर्यायमां जणाय छे? जे पर्यायनुं अस्तित्व छे तेमां ते जणाय छे. खरेखर ते जणातुं नथी परंतु खरेखर तो एनी पर्याय जणाय छे. ए पर्याय पण एमां नथी. अहाहा! लोजीकथी कांईक पकडशे के नही न्याय! जेनी सत्तामां आ सत्तानो स्वीकार थाय छे ते चैतन्यनी पर्यायनी सत्तामां आ छे. पैसा छे ने बायडी छे ने आ छोकरा छे ए चीज कांई एनी पर्यायमां आवती नथी. पर्याय एटले अवस्था - जाणवानी अवस्था. त्रिकाळ द्रव्य अने त्रिकाळ गुण अने वर्तमान पर्याय-अवस्था. ए अवस्थामां ए चीज कांई आवती नथी; पण ए चीज छे एम जाणे छे ए पण ए चीजने जाणतो नथी. अहाहा! ए चीज तो आवती नथी पण ए चीजने जाणतो नथी. ए तो जाणनारने जाणे छे.

अहाहा! आवुं छे प्रभु! आ तो वीतराग, जिनेश्वर त्रिलोकनाथ परमात्मानी वाणी आ छे बापा! लोकोए पामर तरीके काढी नाखी छे. एकेन्द्रियनी दया पाळो, फलाणानी दया पाळो ने आ व्रत करोने एम करीने जैनधर्मने पामर करी नाख्यो छे. जेनी प्रभुतानो पार नथी, जेनी मोटपनो पार नथी अहाहा!

जे आ जगतमां चीजो छे. आ शरीर छे एम शरीरने खबर पडे छे? ए आत्मानी पर्यायमां खबर पडे छे के आ शरीर छे छतां पर्यायमां ए शरीर आवतुं नथी. खरेखर तो ए पर्याय शरीरने जाणती पण नथी कारण के ए पर्याय शरीरमां तन्मय थती नथी. तन्मय थया विना जाणवुं कहेवुं ए बराबर नथी. आ शरीर छे, वाणी छे, राग छे, आ पैसो - धूळ छे, आ मकान छे ए आत्मानी पर्याय एटले के अवस्थानी सत्तामां जणाय छे. ए जणाय छे ए आत्मानी सत्तानी अवस्था जणाय छे; ए वस्तु नहीं.

अहाहा! आ बधुं देखाय छे. आंख तो आटली छे एमां देखाय आटलुं बधुं. खरेखर तो असंख्य प्रदेशमां देखाय छे. आ तो आंख निमित्त छे. असंख्य प्रदेशमां पर्यायमां जणाय छे. ए पर्यायमां पर्यायनी शक्तिथी पर्यायने जाणे छे.

अहाहा! प्रभु! तुं तो ज्ञान, आनंद, शांति, स्वच्छता, प्रभुता एवा अनंत गुणोथी शोभायमान छो ने! एमां परना विकल्पोथी तने तो अशोभा अने कलंक लागे छे. जे आनंद अने ज्ञानथी शोभनारुं तत्त्व एवुं जे परमात्म तत्त्व पोते प्रभु निज परमात्मा एनी पर्यायमां आ करुं ने आ करुं! पण आ करुं ए चीज तो आही आवती नथी अने तारी पर्याय ए चीजमां जाती नथी तो परनुं करवुं तो एमां आवतुं नथी पण परने जाणवुं कहेवुं ए पण व्यवहार छे – असद्भूत व्यवहार छे केम के परमां तन्मय थतो नथी. फकत पोतानी पर्यायने जो छे एम कहेवुं ए पण सद्भूत व्यवहार छे.

(पू. गुरुदेवश्रीना नियमसार श्लोक-१२० उपरना दि. २प-११-७९ना प्रवचनमांथी)


Page 219 of 225
PDF/HTML Page 232 of 238
single page version

श्री प्रवचन रत्नो-१ २१९

प्रतिभास संबंधी थोडुंक

ज्ञान स्व-पर प्रकाशक स्वभावी छे. जिनवाणीनुं आ कथन महासत्य छे. ज्ञाननो स्वभाव जाणवुं छे तो तेमां कोने जाणवुं अने कोने न जाणवुं एवो प्रश्न ज उत्पन्न थतो नथी. परंतु ज्यारे आत्मानुभवी ज्ञानी पुरुषो वारंवार एम समजावता होय के ज्ञान स्वपर प्रकाशकपणानी एक शक्ति धरावे छे ते वात साची छे परंतु ज्ञान परने जाणे छे एम कहेवुं ए तो असद्भुत व्यवहार नयनुं कथन छे. खरेखर तो ज्ञान जेमां पोताना स्वपर प्रकाशकपणानी द्विरूपता जणाई रही छे तेवी पोतानी पर्यायने ज जाणे छे. आम ज्ञान तो ज्ञानने ज जाणे छे खरेखर परने जाणतुं नथी. केवळी भगवान नुं केवळज्ञान पण निरंतर पोतानी वर्तमान वर्तती ज्ञानपर्यायने ज जाणी रहेल छे जे पर्यायमां लोकालोक सतत प्रकाशित थया करे छे.

वळी एक न्याय एवो पण आपवामां आवे छे के ज्ञान तन्मय थया विना जाणी शके नहि अने ज्ञाननी पर्याय पर साथे तो तन्मय थती नथी तेथी खरेखर परमार्थथी जोतां ज्ञानपर्याय परने जाणी शके ज नहि. पर्याय पर्यायमां तन्मय होवाथी पोते पोताने जाणे छे अने प्रयोजननी द्रष्टिए अभेद विवक्षा लईए तो ज्ञान पर्याय ज्ञानमय छे अने ज्ञान तो सदा ज्ञायकमय ज होय छे तेथी ज्ञायक ज जाणवामां आवे छे ए निश्चय छे.

ज्ञान पर्यायनी जाणवा संबंधी जो आवी स्थिति छे तो पछी परना जणावा संबंधी कोई खास व्यवस्था होवी जोईए कारण के पर संबंधीनुं ज्ञान तो थया ज करे छे. आ प्रश्नना उत्तररूप कथनो जिनवाणीमां आवे छे परंतु ते कथनो यथार्थ ख्यालमां, यथार्थरीते आव्या नथी. ज्ञाननी स्वच्छता, उपयोगनी स्वच्छता, आत्मामां, रहेली स्वच्छत्वशक्ति वगेरे संबंधी मीमांसा करतां स्वपरनुं प्रकाशन केवी रीते थाय छे ते समजाय छे. ज्यां ज्यां स्वच्छतानी वात आवी छे त्यां त्यां दर्पणना द्रष्टांतथी प्रकाशननी प्रक्रिया समजाववामां आवी छे. बाह्य पदार्थो दर्पणमां प्रतिबिंबित थाय छे ते दर्पणनी स्वच्छतानुं परिणमन छे, पदार्थनुं एमां कांई कर्तव्य नथी.

ज्ञाननी स्वच्छताने कारणे लोकालोक स्व-पर समस्त पदार्थो पोतानुं प्रमेयत्व समर्पित करतां स्वयमेव झळके छे. ज्ञान तो समये समये आ झळकवापणाने जाणी रहेल छे, पदार्थोने नही केम के झळ कवुं ज्ञाननी सत्तामां बनी रह्युं छे ज्यारे लोकालोक तो ज्ञाननी सत्ताथी बहार वर्ते छे. स्वच्छत्वना निज अमूर्त आत्मप्रदेशोमां थई रहेला परिणमनने ज प्रतिभासन, अवभासन, प्रतिबिंबितपणुं, प्रकाशन वगेरे शब्दोथी ओळखवामां आवे छे. स्वच्छत्वना आ निरंतर चालता परिणमनने कारणे ज ज्ञान स्वसत्तामां रहीने पर सन्मुख थया विना तेमज परमां तन्मय थया विना पोताना स्वच्छत्वना परिणमनमां प्रतिभासित समस्तने तेज समये जाणी ले छे. स्वच्छत्वने कारणे थतो प्रतिभासरूप प्रकाशननो व्यापार तथा ज्ञाननो जाणनक्रियारूप व्यापार समकाळे चालता रहेता होवाथी काळभेद विना स्वपरनुं जाणवुं बनी शके छे. आम प्रकाशकपणुं ए प्रतिभास एटले के झळकवाना अर्थमां प्रतिपादित छे, तेने समकालीन परिणमनने कारणे जाणवाना अर्थमां पण ठेकठेकाणे कथित करवामां आवे छे परंतु


Page 220 of 225
PDF/HTML Page 233 of 238
single page version

२२० श्री प्रवचन रत्नो-१ ज्ञाननी जाणनक्रियाना अर्थमां जोईए तो सर्वजीवोने सर्वकाळे अने सर्वक्षेत्रे ज्ञानमां तो पोतानुं ज्ञान ज जणाया करे छे एटले के ज्ञायक ज अभेदनये जाणवामां आवी रह्यो छे.

वळी प्रतिभास शब्द शाब्दिक अर्थनी द्रष्टिए भिन्न भिन्न अर्थमां वपराय छे. प्रतिभासनो एक अर्थ “जाणे के आम न होय एवुं लागे छे” एवारूपे थाय छे. अज्ञानीने वास्तविकता न होय तो पण तेवुं प्रतिभासवुं ए भ्रमणाना अर्थमां थतो प्रतिभासनो उपयोग छे. अने ज्ञाननी जाणनक्रिया साथे संबंधित प्रतिभास शब्दनो अर्थ स्वच्छत्वना परिणमनरूप प्रकाशकपणुं, प्रतिबिंबितपणुं, झळकवापणुं, अवभासन थाय छे अने आ अर्थ जे स्वपर प्रकाशकताने यथार्थ समजवा माटे यथार्थ छे.

ज्ञानी अज्ञानी बधामां ज्ञाननुं स्वच्छत्व होवाथी स्वपरनो प्रतिभास तो वर्त्या ज करे छे. अज्ञानी एकांत पर प्रतिभासनो स्वीकार करी परमां एकत्व स्थापतो होवाथी तेना ज्ञाननुं अज्ञानत्व प्रगट करे छे तेथी ते अप्रतिबुद्ध रही जाय छे अने तेज जीव स्वना प्रतिभासनो स्वीकार करी एकत्वपूर्वक स्वज्ञायकमय परिणमन करे छे ते प्रतिबुद्ध थईने अनुभूति प्रगट करी ले छे. आ वात ज श्रीमद् राजचंद्रजीना नीचेना कथनमांथी फलित थाय छे-

“अनादिकाळथी जे ज्ञान भवहेतुरूप थतुं हतुं ते ज ज्ञानने एक समयमात्रमां जात्यांतर करी भवनिवृत्तिरूप करनार कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन जयवंत वर्तो, जयवंत वर्तो” .

आमां ज्ञान तो मात्र जाणक स्वभावी ज होवाथी भवना हेतुरूप केम थाय? परंतु स्वच्छत्वना परिणमनने कारणे परनो प्रतिभास थतां परसाथे एकताबुद्धिरूप वर्तवुं थाय छे ते श्रद्धा अने चारित्रना दोषित परिणामो साथे भेदज्ञानना अभावने लईने ज्ञान एकत्वपूर्वक वर्ते छे तेथी तेनी भवना हेतुरूप कहेवामां आवेल छे. आ हकीकतनो खुलासो श्री समयसारजी शास्त्रनी गाथा ८७ मां भावार्थकार समकिती पंडित श्री जयचंदजीए स्पष्ट रीते करेल छे ते यथार्थपणे समजीने स्वीकृत करवा योग्य छे.

प्रतिभासना स्वच्छत्वना परिणमन स्वरूप आ प्रकारना उपयोगना संदर्भो जिनवाणी तथा परम उपकारी पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनोमांथी संकलित करीने अहीं प्रकाशित करवामां आवेल छे.

* * *

Page 221 of 225
PDF/HTML Page 234 of 238
single page version

श्री प्रवचन रत्नो -१ २२१

प्रकाशमानपणुं, प्रतिभास, अवभासन, प्रतिबिंबिंतपणुं, झलकवुं वगेरे एकार्थ छे तेना संदर्भोः

(१) जिनवाणीमांथीः १. स्वच्छत्वशक्तिनी व्याख्याः अमूर्तिक आत्मप्रदेशोमां प्रकाशमान लोकालोकना आकारोथी मेचक

(अर्थात् अनेक आकाररूप) एवो उपयोग जेनुं लक्षण छे एवी स्वच्छत्वशक्ति. (जेम दर्पणनी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना पर्यायमां घटपटादि प्रकाशे छे, तेम आत्मानी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना उपयोगमां लोकालोकना आकारो प्रकाशे छे) (श्री समयसारजी शास्त्रमां ११ मी शक्ति) २. जेमां दर्पणनी सपाटीनी पेठे बधा पदार्थोनो समूह अतीत, अनागत अने वर्तमानकाळना

समस्त अनंत पर्यायो सहित प्रतिबिंबित थाय छे, ते सर्वोत्कृष्ट शुद्ध चेतना स्वरूप प्रकाश जयवंत वर्तो.. जे शुद्ध चेतना प्रकाशमां बधा ज जीवादि पदार्थोनो समूह प्रतिबिंबित थाय छे. शुद्ध चेतना प्रकाशनो कोई एवो ज महीमा छे के तेमां जेटला पदार्थो छे ते बधा ज पोताना आकार सहित प्रतिभासमान थाय छे. अरीसाना उपरना भागमां घटपटादि प्रतिबिंबिंत थाय छे तेम... ज्ञानरूपी दर्पणमां समस्त जीवादि प्रतिबिंबित थाय छे. एवुं कोई द्रव्य के पर्याय नथी जे ज्ञानमां न आव्युं होय. आवा शुद्ध चैतन्यरूप प्रकाशनो सर्वोत्कृष्ट महिमा स्तुति करवा योग्य छे. (श्री पुरुषार्थ सिद्धि उपाय गाथा-१ः अन्वयार्थ, टीका, भावार्थ) ३. ज्ञायक एवुं नाम पण तेने ज्ञेयने जाणवाथी आपवामां आवे छे कारण के ज्ञेयनुं प्रतिबिंब

ज्यारे झळके छे त्यारे ज्ञानमां तेवुं ज अनुभवाय छे तो पण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी कारण के जेवुं ज्ञेय ज्ञानमां प्रतिभासित थयुं तेवो ज्ञायकनोज अनुभव करतां ज्ञायक ज छे. (श्री समयसारजी गाथा-६ नो भावार्थ) ४. जे पुरुषो पोताथी ज अथवा परना उपदेशथी कोईपण प्रकारे भेदविज्ञान जेनुं मूळ उत्पत्ति

कारण छे एवी अविचळ पोताना आत्मानी अनुभूतिने पामे छे, ते ज पुरुषो दर्पणनी जेम पोतामां प्रतिबिंबित थयेला अनंत भावोना स्वभावोथी निरंतर विकार रहित होय छे, - ज्ञानमां जे ज्ञेयोना आकार प्रतिभासे छे तेमनाथी रागादि विकारने प्राप्त थता नथी. (श्री समयसारजी कळश-२१) प. आत्मानी ज्ञान–स्वच्छता एवी ज छे के जेमां ज्ञेयनुं प्रतिबिंब देखाय; ए रीते कर्म - नोकर्म

ज्ञेय छे ते प्रतिभासे छे. (श्री प्रवचनसारजी गाथा-१९ भावार्थ). ६. आत्मा पदार्थोमां नहि वर्ततो होवा छतां जे शक्ति वैचित्र्यथी तेने पदार्थोमां वर्तवुं सिद्ध थाय

छे ते प्रकाशे छे. (श्री समयसारजी गाथा-२९ मथाळुं) आ गाथानी श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां छे के ज्ञानी ज्ञेय पदार्थेषु निश्चयनयेन अप्रविष्टो अपि व्यवहारेण प्रविष्ट ईव प्रतिभातीति शक्ति वैचित्र्य. ७. श्लोकार्थमां छे के ज्ञान ज्ञेयने जाणे छे ते तो आ ज्ञानना शुद्ध स्वभावनो उदय छे आनो भावार्थ


Page 222 of 225
PDF/HTML Page 235 of 238
single page version

२२२ श्री प्रवचन रत्नो-१

कारे एवो अर्थ कर्यो छे के ज्ञानमां अन्य द्रव्यो प्रतिभासे छे ते तो आ ज्ञाननी स्वच्छतानो स्वभाव छे; कांई ज्ञान तेमने स्पर्शतुं नथी के तेओ ज्ञाने स्पर्शतां नथी. आम होवा छतां, ज्ञानमां अन्य द्रव्योनो प्रतिभास देखीने आ लोको “ज्ञानने परज्ञेयो साथे परमार्थ संबंध छे” एवुं मानता थका ज्ञानस्वरूपथी च्युत थाय छे ते तेमनुं अज्ञान छे. (श्री समयसारजी कळश-२१प) ८. ज्ञान ज्ञेयने सदा जाणे छे तो पण ज्ञेय ज्ञाननुं थतुं ज नथी. भावार्थकार आने समजावतां

लखे छे के ज्ञान ज्ञेयने जाणे छे परंतु ज्ञेय ज्ञाननुं जरापण थतुं नथी. आत्मानो ज्ञानस्वभाव होवाथी तेनी स्वच्छतामां ज्ञेय स्वयमेव झळके छे, परंतु ज्ञानमां ते ज्ञेयोनो प्रवेश नथी. (श्री समयसारजी कळश - २१६) ९. ज्ञेयोना निमित्तथी तथा क्षयोपशमना विशेषथी ज्ञानमां जे अनेक खंडरूप आकारो प्रतिभासमां

आवता हता तेनाथी रहित ज्ञानमात्र आकार हवे अनुभवमां आव्यो तेथी ‘अखंड’ एवुं विशेषण ज्ञानने आप्युं छे. (श्री समयसारजी कळश-४७) १०. ज्ञानमात्र भाव जाणनक्रियारूप होवाथी ज्ञान स्वरूप छे. वळी ते पोते ज नीचे प्रमाणे ज्ञेयरूप

छे. बाह्य ज्ञेयो ज्ञानथी जुदां छे, ज्ञानमां पेसतां नथी. ज्ञेयोना आकारनी झलक ज्ञानमां आवतां ज्ञान ज्ञेयाकाररूप देखाय छे परंतु ए ज्ञानना ज कल्लोलो (तरंगो) छे. ते ज्ञान कल्लोलो ज ज्ञान वडे जणाय छे. आ रीते पोते ज पोताथी जणावा योग्य होवाथी ज्ञानमात्र भाव ज ज्ञेयरूप छे. (श्री समयसारजी कलश-२७१ भावार्थ) ११. वळी ज्ञान चित्रपट समान छे. ज्ञानरूपी भीतमां (ज्ञानभूमिमां, ज्ञानपटमां) पण अतीत,

अनागत अने वर्तमान पर्यायोना ज्ञेयाकारो साक्षात् अक क्षणे ज भासे छे. आत्मानी अद्भुत ज्ञानशक्ति अने द्रव्योनी अद्भुत ज्ञेयत्वशक्तिने लीधे केवळज्ञानमां समस्त द्रव्योना त्रणे काळना पर्यायोनुं एक ज समये भासवुं अविरुद्ध छे. जयसेनाचार्यः सर्वे सद्भूता असद्भूता अपि पर्यायाः ये स्कुटं ते पूर्वोकताः पर्यायो वर्तन्ते प्रतिभासन्ते प्रतिस्फुरन्ति केवलज्ञाने. (श्री प्रवचनसारजी गाथा-३७) १२. आत्मा ज्ञानमयपणाने लीधे स्वसंचेतक होवाथी, ज्ञाता अने ज्ञेयनुं वस्तुपणे अन्यत्व होवा

छतां प्रतिभास अने प्रतिभास्यमाननुं पोतानी अवस्थामां अन्योन्य मिलन होवाने लीधे तेमने भिन्न करवा अत्यंत अशकय होवाथी, बधुंय जाणे के आत्मामां निखात - पेसी गयुं होय ए रीते प्रतिभासे छे. (संस्कृत टीकामां “प्रतिभाति” छे, त्यां जाणे छे एम नथी.) (श्री प्रवचनसारजी गाथा-४९) १३. प्रथम तो, अर्थविकल्प ते ज्ञान छे. त्यां, अर्थ एटले शुं? स्व-परना विभागपूर्वक रहेलुं विश्व

ते अर्थ. तेना आकारोनुं अवभासन ते विकल्प अने दर्पणना निज विस्तारनी माफक जेमां युगपद् स्व-पर आकारो अवभासे छे एवो जे अर्थ विकल्प ते ज्ञान. (श्री प्रवचनसारजी गाथा-१२४) १४. एक पोताना आत्माने जाणतां आ त्रण लोक जाणवामां आवी जाय छे कारण के आत्माना

भावरूप केवळज्ञानमां आ लोक प्रतिबिंबित थतो वसी रह्यो छे.


Page 223 of 225
PDF/HTML Page 236 of 238
single page version

श्री प्रवचन रत्नो -१ २२३

आत्माने पोताने जाणतां बधा भेद जणाई जाय छे. जेणे पोताने जाणी लीधो तेणे पोताथी भिन्न सर्व पदार्थोने जाणी लीधा. अथवा आत्मा श्रुतज्ञानरूप व्यप्तिज्ञानथी सर्व लोकालोकने जाणे छे तेथी आत्माने जाणतां बधुं जाणी लीधुं. अथवा वीतराग निर्विकल परम समाधिना बळथी केवळज्ञान प्रगट करीने जेवी रीते दर्पणमां घटपटादि पदार्थ झळके छे ते ज रीते ज्ञानरूपी दर्पणमां सर्व लोकालोक भासे छे. (श्री परमात्मप्रकाश-हिंदीप्रत गाथा-९९, पानुं- ९३/९४) १प. जेवी रीते ताराओनो समूह निर्मळ जळमां प्रतिबिंबित थतो प्रत्यक्ष देखाय छे तेवी ज रीते

मिथ्यात्व रागादि विकल्पोथी रहित स्वच्छ आत्मामां समस्त लोक अलोक भासे छे. (श्री परमात्मप्रकाश गाथा-१०२, पानुं- ९६) १६. जेवी रीते दर्पणनी स्वच्छता, दर्पणनुं स्वरूप तथा दर्पणना आकार बराबर छे तेने छोडया

विना दर्पण यथायोग्य पदार्थोने प्रतिबिंबित करे छे तथा ते पदार्थोमां प्रतिबिंबित थवानो स्वभाव होवाथी पोतानुं स्थान छोडया विना ज ते दर्पणमां प्रतिबिंबित थई जाय छे; तेवी ज रीते ज्ञानानंदना आधारभूत आत्मानुं ज्ञान आत्माना स्वरूप अने आकार बराबर छे तेने छोडया विना ज सर्वज्ञ परमात्मा सर्व लोकालोकने जाणी ले छे तथा सर्व लोकालोक ज्ञाननो विषय होवाथी ज्ञेयस्वभावी होवाथी ते पण पोतानुं स्थान छोडया विना ज ज्ञानमां प्रतिबिंबित थई जाय छे. जेवी रीते दर्पणमां प्रतिबिंबित मयूर बाह्यस्थित मयूरनुं प्रतिबिंबरूप कार्य होवाथी मयूर ज कहेवाय छे ते ज रीते ज्ञानमां प्रतिबिंबित सर्व लोकालोक बाह्य स्थित लोकालोकना प्रतिबिंबरूप कार्य होवाथी सर्व लोकालोक ज कहेवाय छे तेथी सर्वने जाणवानी अपेक्षाए आत्मा सर्वगत छे एम कहेवामां आवे छे. जेवी रीते ज्ञानस्वभावी सर्वज्ञ ज्ञानमय स्वक्षेत्रथी बहार गया विना ज सर्वगत छे तेवी ज रीते शरीर स्थित सर्वज्ञ शरीरनी बहार गया विना ज सर्वगत छे. आ रीते आत्मानी ज्ञानमयता तथा पदार्थोनी ज्ञेयमयताने कारणे पोतपोताना क्षेत्रनो त्याग कर्या विना ज क्रमशः सर्वज्ञ सर्वगत तथा पदार्थ सर्वज्ञगत छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे. (श्री प्रवचनसारजी गाथा-२७ नी श्री जयसेनाचार्यदेवनी तात्पर्यवृत्ति टीका) १७. जेवी रीते रूपी द्रव्य नेत्रनी साथे परस्पर संबंधनो अभाव होवा छतां पण पोताना आकारने

समर्पित करवा समर्थ छे अने नेत्रपण तेमना आकारने ग्रहण करवा समर्थ छे ते ज रीते त्रण लोकरूप उदरविवर-छिद्रमां स्थित त्रणकाळ संबंधी पर्यायोथी परिणमित पदार्थ ज्ञाननी साथे परस्पर प्रदेशोनो संबंध न होवा छतां पण पोताना आकारने समर्पित करवा समर्थ छे; अखंड, एक प्रतिभासमय केवळज्ञान पण तेमना आकारोने ग्रहण करवा समर्थ छे. (श्री प्रवचनसारजी गाथा-२९ तात्पर्यवृत्ति टीका) १८. जो समस्त स्व-ज्ञेयाकारोना समर्पण द्वारा (ज्ञानमां) उतर्या थका सर्व पदार्थो ज्ञानमां न

प्रतिभासे तो ते ज्ञान सर्वगत न मानी शकाय अने जो ते (ज्ञान) सर्वगत मानवामां आवे, तो पछी (पदार्थो)


Page 224 of 225
PDF/HTML Page 237 of 238
single page version

२२४ श्री प्रवचन रत्नो-१

साक्षात् ज्ञानदर्पण भूमिकामां ऊतरेला बिंबसमान पोतपोताना ज्ञेयाकारोनां कारणो होवाथी अने परंपराए प्रतिबिंब समान ज्ञेयाकारोना कारणो होवाथी पदार्थो कई रीते ज्ञानस्थित नथी नक्की थता? (अवश्य ज्ञानस्थित नक्की थाय छे) फूटनोटः- ज्ञानने दर्पणनीउपमा आपीए तो पदार्थोना ज्ञेयाकारो बिंबसमान छे अने ज्ञानमां थता ज्ञाननी अवस्थारूप ज्ञेयाकारो प्रतिबिंब जेवा छे-पदार्थो पोतपोताना द्रव्य- गुण-पर्यायोनां साक्षात् कारण छे अने परंपराए ज्ञाननी अवस्थारूप ज्ञेयाकारोनां (ज्ञानाकारोनां) कारण छे. (श्री प्रवचनसारजी श्री अमृतचंद्राचार्यकृत टीका गाथा-३१) १९. सिद्ध परमेष्ठीना ज्ञानमां कोई पदार्थनो विनाश संभव नथी. अर्थात् बधा पदार्थो तेमनां

ज्ञानमां पोतपोतान भिन्न भिन्न सत्तारूप रहीने ज सर्वदा प्रतिबिंबित थया करे छे. (परम अध्यात्म तरंगिणी कळश-१) २०. ज्ञेयो पण पोतपोताना स्थाने रहीने ज्ञानमां प्रतिबिंबित थया ज करे छे. आवो ज ज्ञान

अने ज्ञेयोनो परस्परमां ज्ञायक ज्ञेय संबंध अनादिथी धाराप्रवाहरूपे चाल्यो आवे छे अने आ प्रकारे ज अनंतकाळ सुधी चाल्या करशे. भावार्थमां छे के बधा पदार्थो ज्ञेय छे. अने ज्ञानमां प्रतिभासित थया ज करे छे. (परम अध्यात्म तरंगिणी कळश-६) २१. आत्मा ज्यारे परिपूर्ण निरावरण केवळज्ञान सम्पन्न थाय छे त्यारे तेमां त्रणलोकवर्ती

अनंतानंत पदार्थो पोतानी त्रणे काळनी पर्यायो सहित युगपत् एक ज समयमां एक ज काळे प्रतिबिंबित थाय छे. तेमना प्रतिबिंबित थवा छतां पण आत्मा तो पोताना स्वरूपमां ज निमग्न रहे छे. आत्मानो स्वभाव ज्ञायक छे अने ज्ञेयोनो स्वभाव ज्ञेयरूपे ज्ञानमां प्रतिबिंबितथवुं–झळकवुं ते छे. बन्ने पोतपोताना स्वभावमां ज रहे छे. (परम अध्यात्म तरंगिणी कळश-३३)

(२) गुरुवाणीमांथी

१. दर्पणमां जे प्रतिबिंब देखाय छे ते तो दर्पणनी स्वपर आकारनो-स्वरूपनो प्रतिभास करनारी

स्वच्छता ज छे. तेम भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे ए ज्ञेयाकार स्वनुं ज्ञान करे छे अने दया-दान-व्रतादि विकल्पनुं ज्ञान करे छे. ए परनुं ज्ञान थाय छे ए पोतानी पर्यायमां थाय छे. ए परनुं ज्ञान परमां तो थतुं नथी पण परने लीधे पण थतुं नथी. पोताना ज्ञाननी स्वच्छत्व शक्तिने लीधे थाय छे. (प्रवचन रत्नाकर भाग-२, पानुं-प४) २. लोकालोक छे तो केवळज्ञाननी पर्याय छे एम नथी. ज्ञाननी स्वपर प्रकाशक परिणति ए

पोताना स्वभावथी थाय छे, लोकालोकथी नहीं. स्वपरनो प्रतिभास थवो ए पोतानुं सहज सामर्थ्य छे; पर छे तो परनो प्रकाश थाय छे एम नथी. आत्मानी तो स्वपरने जाणनारी ज्ञातृता छे. (प्रव. रत्ना. भाग-र, पानुं पप) ३. भगवान आत्मा ज्ञायकभाव स्वभावरूप छे. एमां व्यवहार रत्नत्रयनो जे राग थाय ते राग

संबंधीनुं पण ते काळे पोतानुं ज्ञान परिणमे छे ए ज्ञेयाकारे परिणमे छे एम कहेवुं ते व्यवहार


Page 225 of 225
PDF/HTML Page 238 of 238
single page version

श्री प्रवचन रत्नो-१ २२प

अने ए ज्ञानाकारे थई रह्युं छे ए निश्चय छे भगवान! तने स्वभावनी सत्तानी खबर नथी. भगवान आत्मानी ज्ञानसत्ता ज्ञानना होवापणे छे.. भगवान आत्मानो स्वपरने प्रकाशवाना सामर्थ्यवाळो चैतन्यप्रकाश ज एवो छे के जेम अरीसामां सामेनी चीज-बिंबनुं प्रतिबिंब देखाय छे तेम ज्ञानमां रागादिकर्म-नोकर्म जे होय ते प्रतिभासे छे. (प्रव. रत्ना. भाग-र, पानुं-प७) ४. केवळी भगवान निश्चयथी त्रणकाळ त्रणलोकने देखता नथी. पण पोतानी पर्यायने देखतां तेमां

त्रणकाळ त्रणलोक देखवामां आवी जाय छे... नित्यानंद ज्ञान स्वभावी भगवान आत्माने, पोतानी ज्ञान अवस्था के जेमां लोकालोक झळक्या छे तेने देखे छे त्यां लोकालोक सहज देखाई जाय छे. जेने ते देखे छे ते तो ज्ञाननी अवस्था छे, लोकालोक नथी. (प्रव. रत्ना. भाग-४, पानुं-१७९) प. अनंत सिद्धो अने स्वद्रव्य पर्यायमां जणायो छे एटले के पर्यायमां पर्यायनो प्रतिभास थाय

छे अने पर्यायमां द्रव्यनो प्रतिभास थाय छे. जेम दर्पणमां बिंबनुं प्रतिबिंब देखाय छे तेम एक समयनी पर्यायमां आखा द्रव्यनो प्रतिभास थाय छे. (प्रव. रत्ना. भाग-३, पानुं ७६) ६. तारी चैतन्य ज्योति-ज्ञानज्योति प्रभु! बहार रहेली अग्निने जाणे, पण ते कांई अग्निमां

प्रवेश करे छे, वा अग्नि ज्ञानमां प्रवेश करे छे एम नथी. अरीसो होय छे ने? तेमां अग्नि, बरफ वगेरे चीजोनो प्रतिभास थाय छे ते अरीसानी स्वच्छतानो स्वभाव छे; बाकी अरीसामां कांई अग्नि, बरफ वगेरे पेसी जतां नथी, के अरीसो ते चीजोमां प्रवेशतो नथी. तेम भगवान आत्मा चैतन्य अरीसो छे. तेमां शरीर, मन, वाणी ईन्यादि देखाय छे, प्रतिभासे छे, पण ते चीजो ज्ञानमां प्रवेशती नथी ने ज्ञान ते चीजोमां प्रवेशतुं नथी. (प्रव. रत्ना. भाव-९, पानुं-३९७) ७. अहा! लोको ज्ञानमां परद्रव्योनो प्रतिभास देखीने परद्रव्यो साथे पोताने परमार्थ संबंध

होवानुं माने छे; अर्थात् परज्ञेयोने कारणे ज्ञान थतुं होवानुं माने छे परंतु एवुं मानवुं अज्ञान छे, आ शब्दो परज्ञेय छे एनाथी ज्ञान थाय एम मानवुं ते अज्ञान छे. (प्रव. रत्ना- भाग-९, पानुं-३९७/९८) ८. ज्ञेयोना आकारनी झलक ज्ञानमां आवतां ज्ञान ज्ञेयाकार देखाय छे, परंतु ए ज्ञानना ज

कल्लोलो छे, जुओ, ज्ञान ज्ञेयाकार छे एम नहि. ए तो ज्ञेयने जाणवा प्रति तेवा ज्ञानाकारे पोते ज थयुं छे. ज्ञेयनुं तेमां कांई ज नथी. ज्ञेय ज्ञानमां पेठुं छे एम छे ज नहि अर्थात् ज्ञान ज्ञेयरूपे थाय छे एम छे ज नहि. ज्ञान ज्ञानाकार ज छे. ए ज्ञानना ज कल्लोलो छे. (प्रव. रत्ना. भाग-११, पानुं-२प०)

* * *