श्री प्रवचन रत्नो-१ १ श्री सद्गुरुदेवाय नमः समयसार गाथा–र श्री सद्गुरुदेवाय नमः
तत्र तावत्समय एवाभिधीयते–
पोग्गलकम्मदेसछिदं च तं जाण परसमयं।। २।।
प्रथमगाथामां समयनुं प्राभृत कहेवानी प्रतिज्ञा करी, त्यां ए आकांक्षा थाय के समय एटले शुं? हवे पहेला समयने ज कहे छेः
स्थित कर्मपुद्गलना प्रदेशे परसमय जीव जाणवो. २.
गाथार्थः हे भव्य! (जीव) जे जीव (चरित्रदर्शन ज्ञान स्थितः) दर्शन-ज्ञान -चारित्रमां स्थित थई रह्यो छे (तं) तेने (हिं) निश्चयथी (स्वसमयं) स्वसमय (जानीहि) जाण; (च) अने जे जीव (पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं) पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित थयेल छे (तं) तेने (परसमयं) परसमय (जानीहि) जाण.
टीकाः ‘समय’ शब्दनो अर्थ आ प्रमाणे छेः’ सम’ तो उपसर्ग छे, तेओ अर्थ’ एकपणुं’ एवो छे; अने अय गतौ धातु छे एनो गमन अर्थ पण छे अने ज्ञान अर्थ पण छे; तेथी एकसाथे ज (युगपद) जाणवुं तथा परिणमन करवुं ए बे क्रियाओ जे एकत्वपूर्वक करे ते समय छे.
आ जीव नामनो पदार्थ एकत्वपूर्वक एक ज वखते परिणमे पण छे अने जाणे पण छे तेथी ते समय छे. आ जीव-पदार्थ केवो छे? सदाय परिणाम स्वरूप स्वभावमां रहेलो होवाथी, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यनी एक्तारूप अनुभूति जेनुं लक्षण छे एवी सत्ताथी सहित छे. आ विशेषणथी, जीवनी सत्ता नहि माननार नास्तिकवादीओनो मत खंडित थयो तथा पुरुषने (जीवने) अपरिणामी माननार सांख्यवादीओनो व्यवच्छेद, परिणमनस्वभाव कहेवाथी, थयो. नैयायिको अने वैशेषिको सत्ताने नित्य ज माने छे अने बौद्धो सत्ताने क्षणिक ज माने छे; तेमनुं निराकरण, सत्ताने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप कहेवाथी थयुं.
वळी जीव केवो छे? चैतन्यस्वरूपपणाथी नित्य उद्योतरूप, निर्मळ स्पष्ट दर्शनज्ञान-ज्योतिरूप छे (कारण के चैतन्यनुं परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप छे) आ विशेषणथी, चैतन्यने ज्ञानाकारस्वरूप नहि माननार सांख्यमतीओनुं निराकरण थयुं.
वळी ते केवो छे? अनंत धर्मोमां रहेलुं जे एक धर्मीपणुं तेने लीधे जेने द्रव्यपणुं प्रगट छे (कारण के अनंत धर्मोनी एकता ते द्रव्यपणुं छे) आ विशेषणथी, वस्तुने धर्मोथी रहित माननार बौद्धमतीनो निषेध थयो.
वळी ते केवो छे? क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता अनेक भावो जेनो स्वभाव होवाथी जेणे गुणपर्यायो अंगीकार कर्या छे. (पर्याय क्रमवर्ती होय छे अने गुण सहवर्ती होय छे; सहवर्तीने अक्रमवर्ती पण कहे छे.) आ विशेषणथी, पुरुषने निर्गुण माननार सांख्यमतीओनो निरास थयो.