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तृतीय आवृत्ति
आ शास्त्रनी पडतर किंमत रुा. १०२=०० थाय छे. अनेक मुमुक्षुओनी आर्थिक सहायथी आ आवृत्तिनी किंमत रुा. ४०=०० थाय छे. तेमांथी ५०% श्री कुंदकुंद -कहान पारमार्थिक ट्रस्ट हस्ते स्व. श्री शांतिलाल रतिलाल शाह -परिवार तरफथी किंमत घटाडवामां आवतां आ ग्रंथनी वेचाण किंमत
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो
अने ज्ञप्तिमांही दरव -गुण -पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
वाणी चिन्मूर्ति
खोयेलुं रत्न पामुं,
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भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत सर्वोत्कृष्ट परमागमो मांहेनुं एक आ श्री प्रवचनसार गुजराती अनुवाद सहित पहेली ज वार प्रकाशित थाय छे.
‘श्रीमद् रायचंद्र जैन शास्त्रमाळा’मां प्रसिद्ध थयेल हिंदी प्रवचनसार उपर परमपूज्य सद्गुरुदेवे प्रथम सोनगढमां व्याख्यानो कर्यां हतां अने त्यार पछी वि. सं. १९९९मां राजकोटना चातुर्मास दरमियान तेना भावो व्याख्यान द्वारा प्रगट कर्या हता. ते वखते एम जणायुं हतुं के — पं. हेमराजजीए जे हिंदीभाषाटीका करी छे ते मात्र बालावबोधरूप होवाथी तेमां श्री अमृतचंद्रसूरिकृत संस्कृत टीकाना पूरेपूरा भावो आवी शक्या नथी, तेथी जो आ महान शास्त्रनो अक्षरशः अनुवाद गुजराती भाषामां प्रसिद्ध थाय तो जिज्ञासुओने महा लाभनुं कारण थाय. आथी, आ ग्रंथनुं गुजराती भाषामां प्रकाशन करवानो आ संस्थाए निर्णय कर्यो हतो. आम, समयसारनी जेम आ प्रवचनसार पण पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रभावनी ज प्रसादी छे; निरंतर अध्यात्मशास्त्रोनुं रहस्य समजावीने तेओश्री आपणा उपर जे महान उपकार करी रह्या छे ते उपकारने वाणी द्वारा व्यक्त करवाने आ संस्था सर्वथा असमर्थ छे.
प्रवचनसारना गुजराती अनुवादनुं कार्य भाईश्री हिंमतलाल जेठालाल शाहथी ज थई शके तेम होवाथी, श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्टे तेमने अनुवाद करी आपवा माटे विनंती करी, अने तेमणे घणा हर्षथी अनुवाद करवानुं स्वीकार्युं. तेना फळरूपे आ अनुवाद प्रसिद्ध थवा पाम्यो छे. हवे मुमुक्षु जीवो आ शास्त्रनो पूरो लाभ लई शकशे — ए तेमनां सद्भाग्य छे. अने ते माटे पूज्य गुरुदेवश्रीनी प्रेरणा झीलीने आ अनुवाद तैयार करनार भाईश्री हिंमतलाल जेठालाल शाहनो आपणा उपर महान उपकार वर्ते छे.
श्री प्रवचनसार शास्त्रनी ‘तत्त्वदीपिका’ नामनी प्रथम संस्कृत टीका श्री अमृतचंद्रसूरिए लगभग विक्रम संवतना दसमा सैकामां करी हती. आजे तेने दस सैका वीती गया होवा छतां ते टीकानो अक्षरशः अनुवाद हिंदनी कोई देशभाषामां आज सुधी थयो न हतो, अने संस्कृतभाषाना अभ्यासीओ घणा थोडा ज होय छे तेथी, मुमुक्षु जीवोने आ शास्त्रना अभ्यासनो तथा तेना भावो समजवानो पूरो लाभ मळतो नहि; आ अक्षरशः गुजराती अनुवाद ते खोटने दूर करे छे.
आ शास्त्रनुं गुजराती भाषांतर करवानुं काम सहेलुं न हतुं. श्री जैनधर्मना एक महान निर्ग्रंथ आचार्य श्री अमृतचंद्रसूरिए श्री प्रवचनसार उपर पोतानी तत्त्वदीपिका नामनी संस्कृत टीकामां जे उच्च अने गंभीर भावो उतार्या छे ते भावो बराबर जळवाई रहे तेवी रीते तेने स्पर्शीने अनुवाद थाय तो ज प्रकाशन संपूर्णपणे समाजने लाभदायक नीवडी शके. आ अनुवादमां श्री आचार्यदेवना मूळ भावोनी गंभीरता संपूर्णपणे जळवाई रही छे, अने अनुवादमां अनेक जग्याए फूटनोट द्वारा तेना अर्थो अने खुलासाओ करीने घणी स्पष्टता करवामां आवी छे. ए उपरांत मूळ गाथाओनो
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गुजराती पद्यानुवाद हरिगीतछंदमां कर्यो छे ते घणो मधुर, स्पष्ट अने सरळ भाषामां छे. आथी आ शास्त्र मुमुक्षुओने संपूर्णपणे उपयोगी थाय तेवुं सुंदर बन्युं छे. आ रीते आ अनुवादकार्य भाईश्री हिंमतलालभाईए सर्वांगे पार उतार्युं छे, ए जणावतां ट्रस्टने घणो ज आनंद थाय छे.
भाईश्री हिंमतलालभाई अध्यात्मरसिक, शांत, विवेकी, गंभीर अने वैराग्यशाळी सज्जन छे, ए उपरांत उच्च केळवणी पामेल अने संस्कृतमां प्रवीण छे. आ पहेलां ग्रंथाधिराज श्री समयसारनो गुजराती अनुवाद पण तेमणे ज कर्यो छे अने हवे नियमसारनो अनुवाद पण तेओ ज करवाना छे. आ रीते श्री कुंदकुंदभगवाननां समयसार, प्रवचनसार अने नियमसार जेवां सर्वोत्कृष्ट परमागम शास्त्रोनो अनुवाद करवानुं परम सौभाग्य तेमने मळ्युं छे, तेथी तेओ खरेखर धन्यवादने पात्र छे.
आ शास्त्रनो गुजराती अनुवाद तेमणे एवो सुंदर कर्यो छे के ते माटे आ ट्रस्ट तेमनो जेटलो उपकार माने तेटलो ओछो छे. आ कार्यथी तो आखा जैनसमाज उपर तेमनो उपकार छे. ए कहेवानी भाग्ये ज जरूर छे के — जो आ काम तेमणे हाथमां न लीधुं होत तो आपणे आ सर्वोत्कृष्ट शास्त्र आपणी मातृभाषामां प्राप्त करी शक्या न होत. अनुवाद माटे गमे तेटला पैसा खर्चवामां आवे तोपण बीजाथी आवुं सुंदर कार्य थई शकत नहि — एम आ संस्था खातरीपूर्वक जणावे छे. भाईश्री हिंमतलालभाईए कोई पण प्रकारनी आर्थिक सहायता लीधा वगर, मात्र जिनवाणीमाता प्रत्येनी भक्तिथी प्रेराईने आ कार्य करी आप्युं छे. आ कार्य माटे संस्था तेमनी ॠणी छे. आ अनुवादमां अने हरिगीत गाथाओमां तेमणे पोताना आत्मानो संपूर्ण रस रेडी दीधो छे. तेमणे लखेला उपोद्घातमां तेमना अंतरनुं प्रतिबिंब देखाई आवे छे. तेओ लखे छे के ‘आ अनुवाद में प्रवचनसार प्रत्येनी भक्तिथी अने गुरुदेवश्रीनी प्रेरणाथी प्रेराईने निज कल्याण अर्थे, भवभयथी डरतां डरतां कर्यो छे.’
आ अनुवाद -कार्यमां घणी ज कीमती सेवा भाईश्री खीमचंद जेठालाल शेठे तथा ब्रह्मचारी भाईश्री चंदुलाल खीमचंद झोबाळियाए आपी छे, ते माटे तेमनो उपकार प्रदर्शित करवानी रजा लउं छुं. अने बीजा पण जे जे भाईओए आ कार्यमां मदद आपी छे ते सर्वनो आभार मानवानी रजा लउं छुं.
मुमुक्षुओ आ शास्त्रनो बराबर अभ्यास करी, तेना अंतरना भावोने यथार्थपणे समजो अने तेमां कहेला शुद्धोपयोग -धर्मरूपे पोताना आत्माने परिणमावो.
श्रावण वद २ वीर सं. २४७४ वि. सं. २००४
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प्रवचनसारनी आ छठ्ठी आवृत्ति अगाउनी आवृत्ति प्रमाणे ज छपावी छे. मुद्रणकार्य ‘कहान मुद्रणालय’ना मालिक श्री ज्ञानचंदजी जैने अल्प समयमां काळजीपूर्वक सारुं करी आप्युं छे ते बदल तेमनो ट्रस्ट आभार माने छे.
बीजी आवृत्ति प्रसंगे श्री जयसेनाचार्यकृत ‘तात्पर्यवृत्ति’ नामनी संस्कृत टीका जे उमेरवामां आवी छे ते ब्र० भाईश्री चंदुभाई झोबाळियाए जयपुरनी हस्तलिखित प्रतना आधारे सुधारी आपी छे. ऊंडा आदर्श आत्मार्थी पंडितरत्न श्री हिंमतलालभाई शाहनो उपोद्घात शब्दशः आ आवृत्तिमां लीधेल छे.
आ ‘प्रवचनसार’ सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्माना दिव्यध्वनिनो सार छे. पूज्य गुरुदेवश्रीना श्रीमुखे तेना उपरनां अत्यंत गूढ अने मार्मिक प्रवचनो साक्षात् सांभळवा मळेल अने हालमां टेप -अवतीर्ण ते प्रवचनो सांभळवा मळे छे तेथी आपणे सौ तेमना अत्यंत ॠणी छीए अने तेथी तेमने हार्दिक उपकृतभावभीनी वंदना करीए छीए.
आ शास्त्रमां दर्शावेला भावोने यथार्थपणे समजी, अंतरमां तेनुं परिणमन करी, अतीन्द्रिय ज्ञाननी प्राप्ति द्वारा अतीन्द्रिय आनंदने सर्वे जीवो आस्वादो एवी आंतरिक भावना भावीए छीए.
फागण वद दसम, पू. बहेनश्री चंपाबेननी ७५मी सम्यक्त्व -जयंती, वि. सं. २०६३, इ. स. २००७
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एनी कुंदकुंद गूंथे माळ रे,
जेमां सार -समय शिरताज रे,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
वाजो मने दिनरात रे,
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भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत आ ‘प्रवचनसार’ नामनुं शास्त्र ‘द्वितीय श्रुतस्कंध’नां सर्वोत्कृष्ट आगमोमांनुं एक छे.
‘द्वितीय श्रुतस्कंध’नी उत्पत्ति कई रीते थई ते आपणे पट्टावलिओना आधारे संक्षेपमां प्रथम जोईएः
आजथी २४७४ वर्ष पहेलां आ भरतक्षेत्रनी पुण्यभूमिमां जगत्पूज्य परम भट्टारक सर्वज्ञ भगवान श्री महावीरस्वामी मोक्षमार्गनो प्रकाश करवा माटे समस्त पदार्थोनुं स्वरूप पोताना सातिशय दिव्यध्वनि द्वारा प्रगट करता हता. तेमना निर्वाण पछी पांच श्रुतकेवळी थया, जेमां छेल्ला श्रुतकेवळी श्री भद्रबाहुस्वामी थया. त्यां सुधी तो द्वादशांगशास्त्रना प्ररूपणथी निश्चयव्यवहारात्मक मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्ततो रह्यो. त्यार पछी काळदोषथी क्रमे क्रमे अंगोना ज्ञाननी व्युच्छित्ति थती गई. एम करतां अपार ज्ञानसिंधुनो घणो भाग विच्छेद पाम्या पछी बीजा भद्रबाहुस्वामी आचार्यनी परिपाटीमां बे समर्थ मुनिओ थया — एकनुं नाम श्री धरसेन आचार्य अने बीजानुं नाम श्री गुणधर आचार्य. तेमनी पासेथी मळेला ज्ञान द्वारा तेमनी परंपरामां थयेला आचार्योए शास्त्रो गूंथ्यां अने वीर भगवानना उपदेशनो प्रवाह वहेतो राख्यो.
श्री धरसेन आचार्यने आग्रायणीपूर्वना पांचमा ‘वस्तु’ अधिकारना महाकर्मप्रकृति नामना चोथा प्राभृतनुं ज्ञान हतुं. ते ज्ञानामृतमांथी अनुक्रमे त्यार पछीना आचार्यो द्वारा षट्खंडागम, तथा तेनी धवला -टीका, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रो रचायां. आ रीते प्रथम श्रुतस्कंधनी उत्पत्ति छे. तेमां जीव अने कर्मना संयोगथी थयेला आत्माना संसारपर्यायनुं — गुणस्थान, मार्गणास्थान आदिनुं — संक्षिप्त वर्णन छे, पर्यायार्थिकनयने प्रधान करीने कथन छे. आ नयने अशुद्धद्रव्यार्थिक पण कहे छे अने अध्यात्मभाषाथी अशुद्ध- निश्चयनय अथवा व्यवहार कहे छे.
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श्री गुणधर आचार्यने ज्ञानप्रवादपूर्वना दशमा ‘वस्तु’ अधिकारना त्रीजा प्राभृतनुं ज्ञान हतुं. ते ज्ञानमांथी त्यार पछीना आचार्योए अनुक्रमे सिद्धांतो रच्या. एम सर्वज्ञ भगवान महावीरथी चाल्युं आवतुं ज्ञान आचार्योनी परंपराथी भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवने प्राप्त थयुं. तेमणे पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड आदि शास्त्रो रच्यां. आ रीते द्वितीय श्रुतस्कंधनी उत्पत्ति थई. तेमां ज्ञानने प्रधान करीने शुद्धद्रव्यार्थिक नयथी कथन छे, आत्माना शुद्ध स्वरूपनुं वर्णन छे.
भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव विक्रम संवतनी शरूआतमां थई गया छे. दिगंबर जैनपरंपरामां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनुं स्थान सर्वोत्कृष्ट छे. ‘मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुं दकुं दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।’ ए श्लोक दरेक दिगंबर जैन शास्त्राध्ययन शरू करतां मंगळाचरणरूपे बोले छे. आ परथी सिद्ध थाय छे के सर्वज्ञ भगवान श्री महावीरस्वामी अने गणधर भगवान श्री गौतमस्वामी पछी तुरत ज भगवान कुंदकुंदाचार्यनुं स्थान आवे छे. दिगंबर जैन साधुओ पोताने कुंदकुंदाचार्यनी परंपराना कहेवराववामां गौरव माने छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनां शास्त्रो साक्षात् गणधरदेवनां वचनो जेटलां ज प्रमाणभूत मनाय छे. तेमना पछी थयेला ग्रंथकार आचार्यो पोताना कोई कथनने सिद्ध करवा माटे कुंदकुंदाचार्यदेवनां शास्त्रोनुं प्रमाण आपे छे एटले ए कथन निर्विवाद ठरे छे. तेमना पछी लखायेला ग्रंथोमां तेमनां शास्त्रोमांथी थोकबंध अवतरणो लीधेलां छे. खरेखर भगवान कुंदकुंदाचार्ये पोतानां परमागमोमां तीर्थंकरदेवोए प्ररूपेला उत्तमोत्तम सिद्धांतोने जाळवी राख्या छे अने मोक्षमार्गने टकावी राख्यो छे. वि. सं. ९९०मां थई गयेला श्री देवसेनाचार्यवर तेमना दर्शनसार नामना ग्रंथमां १कहे छे के ‘‘विदेहक्षेत्रना वर्तमान तीर्थंकर सीमंधरस्वामीना समवसरणमां जईने श्री पद्मनंदिनाथे (कुंदकुंदाचार्यदेवे) पोते प्राप्त करेला ज्ञान वडे बोध न आप्यो होत तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?’’ बीजो एक उल्लेख आपणे जोईए, जेमां कुंदकुंदाचार्यदेवने कळिकाळसर्वज्ञ कहेवामां आव्या छेः ‘‘पद्मनंदी, कुंदकुंदाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृध्रपिच्छाचार्य — ए पांच नामोथी विराजित, चार आंगळ ऊंचे आकाशमां चालवानी जेमने ॠद्धि हती, जेमणे पूर्वविदेहमां जईने सीमंधरभगवानने वंदन कर्युं हतुं अने तेमनी पासेथी मळेला श्रुतज्ञान वडे जेमणे भारतवर्षना भव्य जीवोने प्रतिबोध कर्यो छे एवा जे श्री जिनचंद्रसूरिभट्टारकना पट्टना आभरणरूप कळिकाळसर्वज्ञ (भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव) तेमणे रचेला आ षट्प्राभृत ग्रंथमां......... सूरीश्वर श्री श्रुतसागरे रचेली मोक्षप्राभृतनी टीका समाप्त थई.’’ आम षट्प्राभृतनी श्री श्रुतसागरसूरिकृत टीकाना अंतमां लखेलुं छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनी महत्ता बतावनारा आवा अनेकानेक उल्लेखो जैन साहित्यमां मळी आवे छे; २शिलालेखो पण अनेक छे. आ रीते आपणे जोयुं के सनातन जैन संप्रदायमां कळिकाळसर्वज्ञ भगवान कुंदकुंदाचार्यनुं स्थान अजोड छे.
१. मूळ श्लोक माटे १४मुं पानुं जुओ.
२. शिलालेखोना नमूना माटे १३मुं पानुं जुओ.
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भगवान कुंदकुंदाचार्यनां रचेलां अनेक शास्त्रो छे, जेमांथी थोडांक हालमां विद्यमान छे. त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवना मुखमांथी वहेली श्रुतामृतनी सरितामांथी भरी लीधेलां ते अमृतभाजनो हालमां पण अनेक आत्मार्थीओने आत्मजीवन अर्पे छे. तेमनां समयसार, पंचास्तिकाय अने प्रवचनसार नामनां त्रण उत्तमोत्तम शास्त्रो ‘प्राभृतत्रय’ कहेवाय छे. आ त्रण परमागमोमां हजारो शास्त्रोनो सार आवी जाय छे. भगवान कुंदकुंदाचार्य पछी लखायेला घणा ग्रंथोनां बीजडां आ त्रण परमागमोमां रहेलां छे एम सूक्ष्म द्रष्टिथी अभ्यास करतां जणाय छे. श्री समयसार आ भरतक्षेत्रनुं सर्वोत्कृष्ट परमागम छे. तेमां नव तत्त्वोनुं शुद्धनयनी द्रष्टिथी निरूपण करी जीवनुं शुद्ध स्वरूप सर्व तरफथी
समजाव्युं छे. पंचास्तिकायमां छ द्रव्यनुं अने नव तत्त्वनुं स्वरूप संक्षेपमां कह्युं छे. प्रवचनसारमां तेना नाम अनुसार जिनप्रवचननो सार संघर्यो छे. जेम समयसारमां मुख्यत्वे दर्शनप्रधान निरूपण छे, तेम प्रवचनसारमां मुख्यत्वे ज्ञानप्रधान निरूपण छे.
श्री प्रवचनसारना प्रारंभमां ज शास्त्रकर्ताए वीतराग चारित्र माटेनी पोतानी झंखना व्यक्त करी छे. वारंवार अंतरमां डूबकी मारता आचार्यभगवान निरंतर अंदर ज समाई रहेवाने झंखे छे पण ज्यां सुधी ए दशाने पहोंचातुं नथी त्यां सुधी अंतर -अनुभवथी छूटी वारंवार बहार पण अवाई जाय छे. ए दशामां जे अमूल्य वचनमौक्तिकोनी माळा गुंथाई ते आ प्रवचनसार परमागम छे. आखा परमागममां वीतराग चारित्रनी झंखनानो मुख्य ध्वनि गुंजी रह्यो छे.
एवा आ परम पवित्र शास्त्रने विषे त्रण श्रुतस्कंध छे. प्रथम श्रुतस्कंधनुं नाम ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन छे. अनादि काळथी परसन्मुख जीवोने ‘हुं ज्ञानस्वभाव छुं अने मारुं सुख मारामां ज छे’ एवी श्रद्धा कदी थई नथी अने तेथी तेनी ओशियाळी परसन्मुख वृत्ति कदी टळती नथी. एवा दीन दुःखी जीवो पर आचार्यभगवाने परम करुणा करी आ अधिकारमां जीवनो ज्ञानानंदस्वभाव विस्तारथी समजाव्यो छे तेम ज केवळीना ज्ञान अने केवळीना सुख माटेनी धोधमार उत्कृष्ट भावना वहावी छे. ‘क्षायिक ज्ञान ज उपादेय छे, क्षायोपशमिक ज्ञानवाळा तो कर्मभारने ज भोगवे छे, प्रत्यक्ष ज्ञान ज एकांतिक सुख छे, परोक्ष ज्ञान तो अत्यंत आकुळ छे, केवळीनुं अतीन्द्रिय सुख ते ज सुख छे, इन्द्रियजनित सुख तो दुःख ज छे, सिद्धभगवान स्वयमेव ज्ञान, सुख ने देव छे, घातिकर्मरहित भगवाननुं सुख सांभळीने पण जेमने तेनी श्रद्धा थती नथी तेओ अभव्य (दूरभव्य) छे’ एम अनेक अनेक प्रकारे आचार्यभगवाने केवळज्ञान अने अतीन्द्रिय परिपूर्ण सुख माटे पोकार कर्यो छे. केवळीनां ज्ञान अने आनंद माटे आचार्यभगवाने एवी भावभीनी धून मचावी छे के ते वांचीने सहेजे एम लागी जाय छे के विदेहवासी सीमंधरभगवान पासेथी अने केवळीभगवंतोनां टोळां पासेथी भरतक्षेत्रमां आवीने तुरत ज कदाच आचार्यभगवाने आ अधिकार रची पोतानी हृदयोर्मिओ व्यक्त करी होय. आ रीते ज्ञान अने सुखनुं अनुपम निरूपण करी आ अधिकारमां
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आचार्यभगवाने मुमुक्षुओने अतीन्द्रिय ज्ञान अने सुखनी रुचि तथा श्रद्धा करावी छे अने छेल्ली गाथाओमां मोहरागद्वेषने निर्मूळ करवानो जिनोक्त यथार्थ उपाय संक्षेपमां दर्शाव्यो छे.
बीजा श्रुतस्कंधनुं नाम ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन छे. अनादि काळथी परिभ्रमण करतो जीव बधुं करी चूक्यो छे पण स्व -परनुं भेदविज्ञान तेणे कदी कर्युं नथी. ‘बंधमार्गमां तेम ज मोक्षमार्गमां जीव एकलो ज कर्ता, कर्म, करण अने कर्मफळ बने छे, पर साथे तेने कदीये कांई ज संबंध नथी’ एवी सानुभव श्रद्धा तेने कदी थई नथी. तेथी हजारो मिथ्या उपायो करवा छतां ते दुःखमुक्त थतो नथी. आ श्रुतस्कंधमां आचार्यभगवाने दुःखनुं मूळ छेदवानुं साधन — भेदविज्ञान — समजाव्युं छे. ‘जगतनुं प्रत्येक सत् अर्थात् प्रत्येक द्रव्य उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य सिवाय के गुणपर्याय -समूह सिवाय बीजुं कांई ज नथी. सत् कहो, द्रव्य कहो, उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य कहो, गुणपर्यायपिंड कहो — ए बधुं एक ज छे.’ आ, त्रिकाळज्ञ जिनभगवंतोए साक्षात् देखेला वस्तुस्वरूपनो मूळभूत — पायानो — सिद्धांत छे. वीतरागविज्ञाननो आ मूळभूत सिद्धांत शरूआतनी घणी गाथाओमां अत्यंत अत्यंत सुंदर रीते कोई लोकोत्तर वैज्ञानिकनी ढबथी समजाववामां आव्यो छे. त्यां द्रव्यसामान्यनुं स्वरूप जे अलौकिक शैलीथी सिद्ध कर्युं छे तेनो ख्याल वाचकने ए भाग जाते ज वांच्या विना आववो अशक्य छे. खरेखर प्रवचनसारमां वर्णवेलुं आ द्रव्यसामान्यनिरूपण अत्यंत अबाध्य अने परम प्रतीतिकर छे. ए रीते द्रव्यसामान्यना ज्ञानरूपी सुद्रढ भूमिका रचीने, द्रव्यविशेषनुं असाधारण वर्णन, प्राणादिथी जीवनुं भिन्नपणुं, जीव देहादिकनो कर्ता -कारयिता -अनुमंता नथी ए हकीकत, जीवने पुद्गलपिंडनुं अकर्तापणुं, निश्चयबंधनुं स्वरूप, शुद्धात्मानी उपलब्धिनुं फळ, एकाग्रसंचेतनलक्षण ध्यान वगेरे अनेक विषयो अति स्पष्ट रीते समजाववामां आव्या छे. ए बधामां स्व -परनुं भेदविज्ञान ज नीतरी रह्युं छे. आखा अधिकारमां वीतरागप्रणीत द्रव्यानुयोगनुं सत्त्व ठांसी ठांसीने भर्युं छे, जिनशासनना मौलिक सिद्धांतोने अबाध्य युक्तिथी सिद्ध कर्या छे. आ अधिकार जिनशासनना स्तंभ समान छे. एनो ऊंडाणथी अभ्यास करनार मध्यस्थ सुपात्र जीवने ‘जैनदर्शन ज वस्तुदर्शन छे’ एम लाग्या विना रहेतुं नथी. विषयनुं प्रतिपादन एटलुं प्रौढ, अगाध ऊंडपवाळुं, मर्मस्पर्शी अने चमत्कृतिमय छे के ते मुमुक्षुना उपयोगने तीक्ष्ण बनावी श्रुतरत्नाकरना गंभीर ऊंडाणमां लई जाय छे, कोई उच्च कोटिना मुमुक्षुने निज स्वभावरत्ननी प्राप्ति करावे छे अने कोई सामान्य मुमुक्षु त्यां सुधी न पहोंची शके तो तेना हृदयमां पण ‘श्रुतरत्नाकर अद्भुत अने अपार छे’ एवो महिमा तो जरूर घर करी जाय छे. ग्रंथकार श्री कुंदकुंदाचार्यदेव अने टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेवना हृदयमांथी वहेली श्रुतगंगाए तीर्थंकरना अने श्रुतकेवळीओना विरहने भुलाव्या छे.
त्रीजा श्रुतस्कंधनुं नाम चरणानुयोगसूचक चूलिका छे. शुभोपयोगी मुनिने अंतरंग दशाने अनुरूप केवा प्रकारनो शुभोपयोग वर्ते छे अने साथे साथे सहजपणे बहारनी केवी क्रियाओ स्वयं वर्तती होय छे ते आमां जिनेन्द्रकथन अनुसार समजाववामां आव्युं छे. दीक्षा ग्रहण करवानी जिनोक्त विधि, अंतरंग सहजदशाने अनुरूप बहिरंग यथाजातरूपपणुं, २८ मूळगुण,
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अंतरंग -बहिरंग छेद, उपधिनिषेध, उत्सर्ग -अपवाद, युक्ताहारविहार, एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग, मुनिनुं अन्य मुनिओ प्रत्येनुं वर्तन वगेरे अनेक विषयो आमां युक्ति सहित समजाववामां आव्या छे. ग्रंथकार अने टीकाकार आचार्ययुगले चरणानुयोग जेवा विषयनुं पण, आत्मद्रव्यने मुख्य राखीने, शुद्धद्रव्यावलंबी अंतरंग दशा साथे ते ते क्रियाओनो अथवा शुभ भावोनो संबंध दर्शावतां दर्शावतां, निश्चय -व्यवहारनी संधिपूर्वक एवी चमत्कृतिथी वर्णन कर्युं छे के आचरणप्रज्ञापन जेवा अधिकारमां पण जाणे के कोई शांतरसझरतुं अध्यात्मगीत गवाई रह्युं होय एम ज लाग्या करे छे. आत्मद्रव्यने मुख्य राखीने आवुं मधुर, आवुं सयुक्तिक, आवुं प्रमाणभूत, साद्यंत शांतरसनिर्झरतुं चरणानुयोगनुं प्रतिपादन अन्य कोई शास्त्रने विषे नथी. हृदयमां भरेला अनुभवामृतमां रगदोळाईने नीकळती बन्ने आचार्यदेवोनी वाणीमां कोई एवो चमत्कार छे के जे जे विषयने ते स्पर्शे ते ते विषयने परम रसमय, शीतळ शीतळ, सुधास्यंदी बनावी दे छे.
आम त्रण श्रुतस्कंधोमां विभाजित आ परम पवित्र परमागम मुमुक्षुओने यथार्थ वस्तुस्वरूप समजवामां महा निमित्तभूत छे. जिनशासनना अनेक मुख्य मुख्य सिद्धांतोनां बीज आ शास्त्रमां रहेलां छे. आ शास्त्रमां प्रत्येक पदार्थना स्वातंत्र्यनो ढंढेरो छे, दिव्यध्वनि द्वारा नीकळेला अनेक प्रयोजनभूत सिद्धांतोनुं दोहन छे. गुरुदेव अनेक वार कहे छेः ‘श्री समयसार, प्रवचनसार, नियमसार आदि शास्त्रोनी गाथाए गाथाए दिव्यध्वनिनो संदेश छे. ए गाथाओमां एटली अपार ऊंडप छे के ते ऊंडप मापवा जतां पोतानी ज शक्ति मपाई जाय छे. ए सागरगंभीर शास्त्रोना रचनार परम कृपाळु आचार्यभगवाननुं कोई परम अलौकिक सामर्थ्य छे. परम अद्भुत सातिशय अंतर्बाह्य योगो विना ए शास्त्रो रचावां शक्य नथी. ए शास्त्रोनी वाणी तरता पुरुषनी वाणी छे एम स्पष्ट जाणीए छीए. एनी दरेक गाथा छठ्ठा सातमा गुणस्थाने झूलता महामुनिना आत्म -अनुभवमांथी नीकळेली छे. ए शास्त्रोना कर्ता भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमां सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमंधर भगवानना समवसरणमां गया हता अने त्यां तेओ आठ दिवस रह्या हता ए वात यथातथ्य छे, अक्षरशः सत्य छे, प्रमाणसिद्ध छे. ते परम उपकारी आचार्यभगवाने रचेलां समयसार, प्रवचनसारादि शास्त्रोमां तीर्थंकरदेवना ॐकारध्वनिमांथी ज नीकळेलो उपदेश छे.’
आ शास्त्रमां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनी प्राकृत गाथाओ पर तत्त्वदीपिका नामनी संस्कृत टीका लखनार (लगभग विक्रम संवतना १०मा सैकामां थई गयेला) श्री अमृतचंद्राचार्यदेव छे. जेम आ शास्त्रना मूळ कर्ता अलौकिक पुरुष छे तेम तेना टीकाकार पण महासमर्थ आचार्य छे. तेमणे समयसारनी तथा पंचास्तिकायनी टीका पण लखी छे अने तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय आदि स्वतंत्र ग्रंथो पण रच्या छे. तेमनी टीकाओ जेवी टीका हजु सुधी बीजा कोई जैन ग्रंथनी लखायेली नथी. तेमनी टीकाओ वांचनारने तेमनी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपने न्यायथी सिद्ध करवानी असाधारण शक्ति, जिनशासननुं अत्यंत ऊंडुं ज्ञान, निश्चय- व्यवहारनुं संधिबद्ध निरूपण करवानी विरल शक्ति अने उत्तम काव्यशक्तिनो पूरो ख्याल आवी
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जाय छे. अति संक्षेपमां गंभीर रहस्यो गोठवी देवानी तेमनी शक्ति विद्वानोने आश्चर्यचकित करे छे. तेमनी दैवी टीकाओ श्रुतकेवळीनां वचनो जेवी छे. जेम मूळ शास्त्रकारनां शास्त्रो अनुभव- युक्ति आदि समस्त समृद्धिथी समृद्ध छे तेम टीकाकारनी टीकाओ पण ते ते सर्व समृद्धिथी विभूषित छे. शासनमान्य भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे आ कळिकाळमां जगद्गुरु तीर्थंकरदेव जेवुं काम कर्युं छे अने श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे जाणे के तेओ कुंदकुंदभगवानना हृदयमां पेसी गया होय ते रीते तेमना गंभीर आशयोने यथार्थपणे व्यक्त करीने तेमना गणधर जेवुं काम कर्युं छे. श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे रचेलां काव्यो पण अध्यात्मरसथी अने आत्म -अनुभवनी मस्तीथी भरपूर छे. श्री समयसारनी टीकामां आवतां काव्योए (
पर ऊंडी छाप पाडी छे अने आजे पण ते तत्त्वज्ञानथी अने अध्यात्मरसथी भरेला मधुर कळशो अध्यात्मरसिकोना हृदयना तारने झणझणावी मूके छे. अध्यात्मकवि तरीके श्री अमृतचंद्राचार्यदेवनुं स्थान अद्वितीय छे.
प्रवचनसारमां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे २७५ गाथाओ प्राकृतमां रची छे. तेना पर श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे तत्त्वदीपिका नामनी अने श्री जयसेनाचार्यदेवे तात्पर्यवृत्ति नामनी संस्कृत टीका लखी छे. श्री पांडे हेमराजजीए तत्त्वदीपिकानो भावार्थ हिंदीमां लख्यो छे अने ते भावार्थनुं नाम बालावबोधभाषाटीका राख्युं छे. वि. सं. १९६९मां श्री परमश्रुतप्रभावकमंडळ द्वारा प्रकाशित हिंदी प्रवचनसारमां मूळ गाथाओ, बन्ने संस्कृत टीकाओ अने श्री हेमराजजीकृत हिंदी बालावबोधभाषाटीका प्रगट थयां छे. हवे प्रकाशन पामता आ गुजराती प्रवचनसारमां मूळ गाथाओ, तेनो गुजराती पद्यानुवाद, संस्कृत तत्त्वदीपिका टीका, अने ते गाथा -टीकानो अक्षरशः गुजराती अनुवाद प्रगट करवामां आवेल छे. ज्यां विशेष स्पष्टता करवानी जरूर जणाई त्यां कौंसमां अथवा ‘भावार्थ’मां अथवा फूटनोटमां स्पष्टता करी छे. ते स्पष्टता करवामां घणां घणां स्थळोए श्री जयसेनाचार्यदेवकृत ‘तात्पर्यवृत्ति’ अतिशय उपयोगी थई छे अने कोईक स्थळे श्री हेमराजजीकृत बालावबोधभाषाटीकानो आधार पण लीधो छे. श्री परमश्रुतप्रभावकमंडळ द्वारा प्रकाशित प्रवचनसारमां छपायेली संस्कृत टीकाने हस्तलिखित प्रतो साथे मेळवतां तेमां क्यांक अल्प अशुद्धिओ रही गयेली जणाई ते आमां सुधारी लेवामां आवी छे.
आ अनुवाद करवानुं महाभाग्य मने प्राप्त थयुं ते मने अति हर्षनुं कारण छे. परम पूज्य सद्गुरुदेवना आश्रय तळे आ गहन शास्त्रनो अनुवाद थयो छे. अनुवाद करवानी समस्त शक्ति मने पूज्यपाद सद्गुरुदेव पासेथी ज मळी छे. परमोपकारी सद्गुरुदेवना पवित्र जीवनना प्रत्यक्ष परिचय विना अने तेमना आध्यात्मिक उपदेश विना आ पामरने जिनवाणी प्रत्ये लेश पण भक्ति के श्रद्धा क्यांथी प्रगटत, भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव अने तेमनां शास्त्रोनो लेश पण महिमा क्यांथी आवत अने ते शास्त्रोना अर्थ -उकेलनी लेश पण शक्ति क्यांथी होत? आ रीते अनुवादनी समस्त शक्तिनुं मूळ श्री सद्गुरुदेव ज होवाथी खरेखर तो सद्गुरुदेवनी अमृतवाणीनो धोध ज
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परिणम्यो छे. जेमणे सिंचेली शक्तिथी अने जेमनी हूंफथी आ गहन शास्त्रनो अनुवाद करवानुं में साहस खेड्युं हतुं अने जेमनी कृपाथी ते निर्विघ्ने पार पड्यो छे ते परम पूज्य परमोपकारी सद्गुरुदेव(श्री कानजीस्वामी)नां चरणारविंदमां अति भक्तिभावे वंदन करुं छुं.
परम पूज्य बहेनश्री चंपाबेन प्रत्ये पण, आ अनुवादनी पूर्णाहुति करतां, उपकारवशतानी उग्र लागणी अनुभवाय छे. जेमनां पवित्र जीवन अने बोध आ पामरने श्री प्रवचनसार प्रत्ये, प्रवचनसारना महान कर्ता प्रत्ये अने प्रवचनसारमां उपदेशेला वीतरागविज्ञान प्रत्ये बहुमानवृद्धिनां विशिष्ट निमित्त थयां छे, एवां ते परम पूज्य बहेनश्रीनां चरणकमळमां आ हृदय नमे छे.
आ अनुवादमां अनेक भाईओनी हार्दिक मदद छे. माननीय मुरब्बी श्री वकील रामजीभाई माणेकचंद दोशीए पोताना भरचक धार्मिक व्यवसायोमांथी समय काढीने आखो अनुवाद बारीकाईथी तपास्यो छे, यथोचित सलाह आपी छे अने अनुवादमां पडती नानीमोटी मुश्केलीओनो पोताना विशाळ शास्त्रज्ञानथी निवेडो करी आप्यो छे. भाईश्री खीमचंद जेठालाल शेठ पण आखो अनुवाद चीवटथी तपासी गया छे अने पोताना संस्कृत भाषाना तेम ज शास्त्रोना ज्ञानना आधारे उपयोगी सूचनाओ करी छे. ब्रह्मचारी भाई श्री चंदुलाल खीमचंद झोबाळियाए हस्तलिखित प्रतोना आधारे संस्कृत टीका सुधारी आपी छे, अनुवादनो केटलोक भाग तपासी आप्यो छे, शुद्धिपत्रक, अनुक्रमणिका अने गाथासूचि तैयार कर्यां छे, तेम ज प्रूफ तपास्यां छे
एम विधविध मदद करी छे. आ सर्व भाईओनो हुं अंतःकरणपूर्वक आभार मानुं छुं. तेमनी सहृदय सहाय विना आ अनुवादमां घणी ऊणपो रही जवा पामत. आ सिवाय जे जे भाईओनी आमां मदद छे ते सर्वनो हुं ॠणी छुं.
आ अनुवाद में प्रवचनसार प्रत्येनी भक्तिथी अने गुरुदेवनी प्रेरणाथी प्रेराईने, निज कल्याण अर्थे, भवभयथी डरतां डरतां कर्यो छे. अनुवाद करतां शास्त्रना मूळ आशयोमां कांई फेरफार न थई जाय ते माटे में माराथी बनती तमाम काळजी राखी छे. छतां अल्पज्ञताने लीधे तेमां कांई पण आशयफेर थयो होय के भूलो रही गई होय तो ते माटे हुं शास्त्रकार श्री कुंदकुंदाचार्यभगवान, टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेव अने मुमुक्षु वाचकोनी अंतरना ऊंडाणमांथी क्षमा याचुं छुं.
आ अनुवाद भव्य जीवोने जिनकथित वस्तुविज्ञाननो निर्णय करावी, अतीन्द्रिय ज्ञान अने सुखनी श्रद्धा करावी, प्रत्येक द्रव्यनुं संपूर्ण स्वातंत्र्य समजावी, द्रव्यसामान्यमां लीन थवारूप शाश्वत सुखनो पंथ दर्शावो, ए मारी अंतरनी भावना छे. ‘परमानंदरूपी सुधारसना पिपासु भव्य जीवोना हितने माटे’ श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे आ महाशास्त्रनी व्याख्या लखी छे. जे जीवो एमां कहेला परम कल्याणकर भावोने हृदयगत करशे तेओ अवश्य परमानंदरूपी सुधारसनां भाजन थशे. ज्यां सुधी ए भावो हृदयगत न थाय त्यां सुधी निशदिन ए ज भावना, ए ज विचार, ए ज मंथन, ए ज पुरुषार्थ कर्तव्य छे. ए ज परमानंदप्राप्तिनो
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उपाय छे. श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे तत्त्वदीपिकानी पूर्णाहुति करतां भावेली भावना भावीने आ उपोद्घात पूर्ण करुं छुंः ‘‘आनंदामृतना पूरथी भरचक वहेती कैवल्यसरितामां जे निमग्न छे, जगतने जोवाने समर्थ एवी महाज्ञानलक्ष्मी जेमां मुख्य छे, उत्तम रत्नना किरण जेवुं जे स्पष्ट अने जे इष्ट छे — एवा प्रकाशमान स्वतत्त्वने जीवो स्यात्कारलक्षणथी लक्षित जिनेन्द्रशासनना वशे पामो.’’ श्रुतपंचमी, वि. सं. २००४ – हिंमतलाल जेठालाल शाह
निश्चयनयने उपादेय केम कह्यो छे?
छे अने ज्ञानदशा पण आत्मा स्वतंत्रपणे करे छे’ — आवा यथार्थ ज्ञाननी अंदर
ज्ञान होय तो ए विशेषो जेना विना होता नथी एवा सामान्यनुं ज्ञान होवुं
ज जोईए. द्रव्यसामान्यना ज्ञान विना पर्यायोनुं यथार्थ ज्ञान होई शके ज नहि.
माटे उपरोक्त निश्चयनयमां द्रव्यसामान्यनुं ज्ञान गर्भितपणे समाई ज जाय छे.
जे जीव बंधमार्गरूप पर्यायमां तेम ज मोक्षमार्गरूप पर्यायमां आत्मा एकलो ज
छे एम यथार्थपणे (द्रव्यसामान्यनी अपेक्षा सहित) जाणे छे, ते जीव परद्रव्य
वडे संपृक्त थतो नथी अने द्रव्यसामान्यनी अंदर पर्यायोने डुबाडी दईने सुविशुद्ध
होय छे. आ रीते पर्यायोना यथार्थ ज्ञानमां द्रव्यसामान्यनुं ज्ञान अपेक्षित होवाथी
अने द्रव्य -पर्यायोना यथार्थ ज्ञानमां द्रव्यसामान्यना आलंबनरूप अभिप्राय
अपेक्षित होवाथी उपरोक्त निश्चयनयने उपादेय कह्यो छे.
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कुन्द -प्रभा -प्रणयि -कीर्ति -विभूषिताशः ।
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।।
कुंदकुंद आ पृथ्वी पर कोनाथी वंद्य नथी?
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः ।
चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः ।।
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