Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration). AnukramanikA; Sadhak Jivni Drashti; Shastra-Swadhyaynu Prarambhik ManglAcharan; Gnan Tattva PragyApan; Mangalacharan and Bhumika; Gatha: 1-6.

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अर्थःयतीश्वर (श्री कुंदकुंदस्वामी) रजःस्थाननेभूमितळनेछोडीने
चार आंगळ ऊंचे आकाशमां चालता हता ते द्वारा हुं एम समजुं छुं के, तेओश्री
अंदरमां तेम ज बहारमां रजथी (पोतानुं) अत्यंत अस्पृष्टपणुं व्यक्त करता हता
(
अंदरमां तेओ रागादिक मळथी अस्पृष्ट हता अने बहारमां धूळथी अस्पृष्ट
हता).
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण
ण विबोहइ तो समणा क हं सुमग्गं पयाणंति ।।
[दर्शनसार]
अर्थः(महाविदेहक्षेत्रना वर्तमान तीर्थंकरदेव) श्री सीमंधरस्वामी पासेथी
मळेला दिव्य ज्ञान वडे श्री पद्मनंदिनाथे (श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे) बोध न आप्यो होत
तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?
हे कुंदकुंदादि आचार्यो! तमारां वचनो पण स्वरूपानुसंधानने विषे आ
पामरने परम उपकारभूत थयां छे. ते माटे हुं तमने अतिशय भक्तिथी नमस्कार
करुं छुं.
[श्रीमद् राजचंद्र]
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवनो अमारा पर घणो उपकार छे, अमे तेमना
दासानुदास छीए. श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमां सर्वज्ञ वीतराग श्री
सीमंधर भगवाननां समवसरणमां गया हता अने त्यां तेओश्री आठ दिवस रह्या
हता ए विषे अणुमात्र शंका नथी. ए वात एम ज छे; कल्पना करशो नहि, ना
कहेशो नहि; मानो तोपण एम ज छे, न मानो तोपण एम ज छे. यथातथ्य वात
छे, अक्षरशः सत्य छे, प्रमाणसिद्ध छे.
[ पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ]

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(१) ज्ञानत˚व -प्रज्ञापन

विषयगाथा

विषयगाथा
ज्ञान अधिकार

मंगलाचरणपूर्वक भगवान ग्रंथकर्तानी

प्रतिज्ञा
अतीन्द्रिय ज्ञानरूपे परिणमेला होवाथी

वीतराग चारित्र उपादेय छे, अने सराग

केवळीभगवानने बधुं प्रत्यक्ष छे.२१
चारित्र हेय छे एवुं कथन
आत्मा ज्ञानप्रमाण छे अने ज्ञान

चारित्रनुं स्वरूप

सर्वगत छे, एवुं कथन२३

चारित्र अने आत्मानी एकतानुं कथन

आत्माने ज्ञानप्रमाण नहि मानवामां बे
पक्ष रजू करीने दोष बतावे छे.२४

आत्मानुं शुभ, अशुभ अने शुद्धपणुं

ज्ञाननी जेम आत्मानुं पण सर्वगतपणुं

परिणाम वस्तुनो स्वभाव छे.१०

न्यायसिद्ध छे एम कहे छे.२६

आत्माना शुद्ध अने शुभादि भावोनुं फळ ११

आत्मा अने ज्ञाननुं एकत्व -अन्यत्व२७
शुोपयोग
ज्ञान अने ज्ञेयना परस्पर गमनने
शुद्धोपयोगना फळनी प्रशंसा१३
रद करे छे.२८
शुद्धोपयोगे परिणमेला आत्मानुं स्वरूप१४
आत्मा पदार्थोमां नहि वर्ततो होवा छतां
शुद्धोपयोगनी प्राप्ति पछी तुरत ज
जेनाथी तेने पदार्थोमां वर्तवुं सिद्ध
थाय छे ते शक्तिवैचित्र्य
२९
थती शुद्ध आत्मस्वभावनी प्राप्ति;
तेनी प्रशंसा
१५
ज्ञान पदार्थोमां वर्ते छे एम द्रष्टांत

शुद्धात्मस्वभावनी प्राप्ति अन्य कारकोथी

द्वारा स्पष्ट करे छे.३०
निरपेक्ष होवाथी अत्यंत आत्माधीन
छे, ते संबंधी निरूपण
१६
पदार्थो ज्ञानमां वर्ते छे एम व्यक्त
करे छे.३१

स्वयंभू -आत्माने शुद्धात्मस्वभावनी

आत्माने पदार्थो साथे एकबीजामां
प्राप्तिनुं अत्यंत अविनाशीपणुं अने
कथंचित् उत्पाद -व्यय -ध्रौव्ययुक्तपणुं
१७
वर्तवापणुं होवा छतां, ते परने
ग्रह्या -मूक्या विना तथा पररूपे
परिणम्या विना सर्वने देखतो -जाणतो
होवाथी तेने अत्यंत भिन्नपणुं छे एम
दर्शावे छे.

पूर्वोक्त स्वयंभू -आत्माने इंद्रियो विना कइ

रीते ज्ञान -आनंद होय? एवा संदेहनुं
निराकरण
१९
३२

अतींद्रियपणाने लीधे शुद्धात्माने शारीरिक

केवळज्ञानीने अने श्रुतज्ञानीने अविशेष - पणे
सुखदुःख नथी२०
दर्शावीने विशेष आकांक्षाना क्षोभने क्षय
करे छे.
३३

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विषयगाथा

विषयगाथा

ज्ञानना श्रुत -उपाधिकृत भेदने दूर करे छे. ३४ आत्मा अने ज्ञाननो कर्तृत्व -करणत्वकृत

एकने नहि जाणनार सर्वने जाणतो नथी. ४९
क्रमे प्रवर्तता ज्ञाननुं सर्वगतपणुं सिद्ध थतुं
भेद दूर करे छे.३५
नथी.५०

शुं ज्ञान छे अने शुं ज्ञेय छे ते व्यक्त

युगपद् प्रवृत्ति वडे ज ज्ञाननुं सर्वगतपणुं
करे छे.३६
सिद्ध थाय छे.५१

द्रव्योना अतीत -अनागत पर्यायो पण,

ज्ञानीने ज्ञप्तिक्रियानो सद्भाव होवा छतां
तात्काळिक पर्यायोनी माफक, पृथक्पणे
ज्ञानमां वर्ते छे.
३७
पण क्रियाना फळरूप बंधनो निषेध
करतां ज्ञान -अधिकारनो उपसंहार
करे छे.
५२

अविद्यमान पर्यायोनुं कथंचित् विद्यमानपणुं ३८ अविद्यमान पर्यायोनुं ज्ञानप्रत्यक्षपणुं द्रढ

सुख अधिकार
करे छे.३९
ज्ञानथी अभिन्न एवा सुखनुं स्वरूप वर्णवतां

इंद्रियज्ञानने माटे ज नष्ट अने अनुत्पन्न

क्युं ज्ञान तेम ज सुख उपादेय छे अने
कयुं हेय छे ते विचारे छे.
५३
जाणवानुं अशक्य छे एम न्यायथी
नक्की करे छे.
४०
अतीन्द्रिय सुखना साधनभूत अतीन्द्रिय

अतींद्रिय ज्ञान माटे जे जे कहेवामां आवे

ज्ञान उपादेय छे एम प्रशंसे छे.५४
ते ते (बधुं) संभवे छे एम स्पष्ट करे
छे.
४१
इंद्रियसुखना साधनभूत इंद्रियज्ञान हेय छे
एम तेने निंदे छे.५५

ज्ञेयार्थपरिणमनस्वरूप क्रिया ज्ञानमांथी

इंद्रियज्ञान प्रत्यक्ष नथी एम नक्की
उद्भवती नथी एम श्रद्धे छे.४२
करे छे.५७

ज्ञेयार्थपरिणमनस्वरूप क्रिया अने तेनुं

परोक्ष अने प्रत्यक्षनां लक्षण दर्शावे छे.५८
फळ शामांथी उत्पन्न थाय छे?
एम विवेचे छे.
४३
प्रत्यक्ष ज्ञानने पारमार्थिक सुखपणे
दर्शावे छे.५९

केवळीभगवंतोने क्रिया पण क्रियाफळने

उत्पन्न करती नथी.४४
‘केवळज्ञानने पण परिणाम द्वारा खेदनो

तीर्थंकरोने पुण्यनो विपाक अकिंचित्कर छे. ४५ केवळीभगवंतोनी माफक बधाय जीवोने

संभव होवाथी केवळज्ञान एकांतिक
सुख नथी’ एवा अभिप्रायनुं खंडन
करे छे.
६०
स्वभावविघातनो अभाव होवानुं
निषेधे छे.
४६
‘केवळज्ञान सुखस्वरूप छे’ एम निरूपण

अतीन्द्रिय ज्ञानने सर्वज्ञपणे अभिनंदे छे. ४७ सर्वने नहि जाणनार एकने पण

करतां उपसंहार करे छे.६१
केवळीओने ज पारमार्थिक सुख होय छे एम
जाणतो नथी.४८
श्रद्धा करावे छे.६२

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विषयगाथा

विषयगाथा
शुभ अने अशुभ उपयोगनुं अविशेषपणुं

परोक्षज्ञानवाळाओना अपारमार्थिक

अवधारीने, समस्त रागद्वेषना द्वैतने
दूर करता थका, अशेष दुःखनो क्षय
करवानो द्रढ निश्चय करी शुद्धोपयोगमां
वसे छे.

इंद्रियसुखनो विचार६३ ज्यां सुधी इंद्रियो छे त्यां सुधी स्वभावथी

ज दुःख छे एम न्यायथी नक्की करे छे.६४

७८
मोहादिकना उन्मूलन प्रत्ये सर्व आरंभथी

मुक्त आत्माना सुखनी प्रसिद्धि माटे,

कटिबद्ध थाय छे.७९

शरीर सुखनुं साधन होवानी वातनुं खंडन करे छे.६५

‘मारे मोहनी सेनाने कइ रीते जीतवी’एम
उपाय विचारे छे.८०

आत्मा स्वयमेव सुखपरिणामनी शक्तिवाळो

में चिंतामणि प्राप्त कर्यो होवा छतां

होवाथी विषयोनुं अकिंचित्करपणुं६७

प्रमाद चोर छे एम विचारी
जागृत रहे छे.
८१

आत्मानुं सुखस्वभावपणुं द्रष्टांत वडे द्रढ

करीने आनंद -अधिकार पूर्ण करे छे. ६८

पूर्वोक्त गाथाओमां वर्णव्यो ते ज एक,
शुभपरिणाम अधिकार
भगवंतोए पोते अनुभवीने दर्शावेलो
निःश्रेयसनो पारमार्थिक पंथ छे
एम

इंद्रियसुखना स्वरूप संबंधी विचार उपाडतां,

मतिने व्यवस्थित करे छे.८२

तेना साधननुं स्वरूप६९

शुद्धात्मानो परिपंथी जे मोह तेनो

इंद्रियसुखने शुभोपयोगना साध्य तरीके

स्वभाव अने प्रकारो व्यक्त करे छे. ८३

कहे छे.७०

त्रण प्रकारना मोहने अनिष्ट कार्यनुं कारण

इंद्रियसुखने दुःखपणे सिद्ध करे छे.७१

कहीने तेनो क्षय करवानुं कहे छे.८४

इंद्रियसुखना साधनभूत पुण्यने उत्पन्न

रागद्वेषमोहने आ लिंगो वडे ओळखीने

करनार शुभोपयोगनुं, दुःखना साधन- भूत पापने उत्पन्न करनार अशुभो- पयोगथी अविशेषपणुं प्रगट करे छे. ७२

उद्भवतां वेंत ज मारी नाखवा
योग्य छे.
८५
मोहक्षय करवानो उपायान्तर विचारे छे.८६

पुण्यो दुःखना बीजना हेतु छे एम

जिनेंद्रना शब्दब्रह्ममां अर्थोनी व्यवस्था

न्यायथी प्रगट करे छे.७४

कइ रीते छे ते विचारे छे.८७

पुण्यजन्य इंद्रियसुखनुं घणा प्रकारे

मोहक्षयना उपायभूत जिनेश्वरना उपदेशनी

दुःखपणुं प्रकाशे छे.७६

प्राप्ति थवा छतां पण पुरुषार्थ अर्थ-
क्रियाकारी छे.
८८

पुण्य अने पापनुं अविशेषपणुं निश्चित

स्व -परना विवेकनी सिद्धिथी ज मोहनो क्षय

करता थका (आ विषयनो) उपसंहार करे छे.७७

थइ शके छे तेथी स्व -परना विभागनी
सिद्धि माटे प्रयत्न करे छे.
८९

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विषयगाथा

विषयगाथा

सर्व प्रकारे स्व -परना विवेकनी सिद्धि

आचार्यभगवान साम्यनुं धर्मत्व सिद्ध करीने

आगमथी करवायोग्य छे एम उपसंहार करे छे.९०

‘हुं स्वयं साक्षात् धर्म ज छुं’ एवा
भावमां निश्चळ टके छे.
९२

जिनोदित अर्थोना श्रद्धान विना धर्मलाभ

थतो नथी.९१

(२) ज्ञेयत˚व -प्रज्ञापन

विषयगाथा

विषयगाथा
ुव्यसामान्य अधिकार
पृथक्त्व अने अन्यत्वनुं लक्षण१०६
अतद्भावने उदाहरण वडे स्पष्ट रीते

पदार्थोनुं सम्यक् द्रव्यगुणपर्यायस्वरूप९३

दर्शावे छे१०७

स्वसमय -परसमयनी व्यवस्था नक्की करीने

सर्वथा अभाव ते अतद्भावनुं लक्षण नथी. १०८
सत्ता अने द्रव्यनुं गुण -गुणीपणुं सिद्ध

उपसंहार करे छे.९४ द्रव्यनुं लक्षण९५

करे छे.१०९

स्वरूप -अस्तित्वनुं कथन९६ साद्रश्य -अस्तित्वनुं कथन९७

गुण ने गुणीना अनेकपणानुं खंडन११०

द्रव्योथी द्रव्यांतरनी उत्पत्ति होवानुं अने

द्रव्यने सत् -उत्पाद अने असत् -उत्पाद

द्रव्यथी सत्तानुं अर्थांतरपणुं होवानुं खंडन करे छे.९८

होवामां अविरोध सिद्ध करे छे.१११
सत् -उत्पादने अनन्यपणा वडे अने

उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होवा छतां द्रव्य

असत् -उत्पादने अन्यपणा वडे
नक्की करे छे.
११२

‘सत्’ छे एम दर्शावे छे.९९ उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्यनो परस्पर

एक द्रव्यने अन्यत्व अने अनन्यत्व

अविनाभाव द्रढ करे छे.१००

होवामां अविरोध दर्शावे छे.११४

उत्पादादिकनुं द्रव्यथी अर्थांतरपणुं नष्ट

सर्व विरोधने दूर करनारी सप्तभंगी

करे छे.१०१

प्रगट करे छे.११५

उत्पादादिकनो क्षणभेद निरस्त करीने

जीवने मनुष्यादिपर्यायो क्रियानां फळ होवाथी

तेओ द्रव्य छे एम समजावे छे. १०२

ते पर्यायोनुं अन्यत्व प्रकाशे छे.११६

द्रव्यनां उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य अनेकद्रव्यपर्याय

मनुष्यादिपर्यायोमां जीवने स्वभावनो पराभव

तथा एकद्रव्यपर्याय द्वारा विचारे छे. १०३

कया कारणे थाय छे तेनो निर्धार११८

सत्ता अने द्रव्य अर्थांतरो नहि होवा

जीवनुं द्रव्यपणे अवस्थितपणुं होवा छतां

विषे युक्ति१०५

पर्यायोथी अनवस्थिपणुं११९

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विषय

गाथा
विषय
गाथा

परिणामात्मक संसारमां कया कारणे पुद्गलोनो

‘काळाणु अप्रदेशी ज छे’ एवो नियम

संबंध थाय छे के जेथी ते (-संसार) मनुष्यादिपर्यायात्मक होय छे तेनुं

करे छे.
१३८
काळपदार्थनां द्रव्य अने पर्याय
१३९

समाधान

१२१
आकाशना प्रदेशनुं लक्षण
१४०

परमार्थे आत्माने द्रव्यकर्मनुं अकर्तापणुं

१२२
तिर्यक्प्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय
१४१

आत्मा जे रूपे परिणमे छे ते स्वरूप शुं छे?१२३ ज्ञाननुं, कर्मनुं अने कर्मफळनुं स्वरूप वर्णवीने

काळपदार्थनो ऊर्ध्वप्रचय निरन्वय
होवानी वातनुं खंडन
१४२

तेमने आत्मापणे नक्की करे छे.

१२४
सर्व वृत्त्यंशोमां काळपदार्थ उत्पादव्यय-

शुद्धात्मतत्त्वनी उपलब्धिने अभिनंदता थका

ध्रौव्यवाळो छे एम सिद्ध करे छे. १४३

द्रव्यसामान्यना वर्णननो उपसंहार करे छे.

काळपदार्थनुं प्रदेशमात्रपणुं सिद्ध करे छे. १४४
१२६
ज्ञानज्ञेयविभाग अधिकार
ुव्यविशेष अधिकार
आत्माने विभक्त करवा माटे व्यवहार-

द्रव्यना जीव -अजीवपणारूप विशेषने नक्की

जीवत्वनो हेतु विचारे छे.
१४५

करे छे.

१२७
प्राणो कया छे ते कहे छे.
१४६

द्रव्यनो लोक -अलोकपणारूप विशेष नक्की

व्युत्पत्तिथी प्राणोने जीवत्वनुं हेतुपणुं तथा

करे छे.

१२८
तेमनुं पौद्गलिकपणुं
१४७

‘क्रिया’ अने ‘भाव’तेमनी अपेक्षाए द्रव्यनो

प्राणोने पौद्गलिक कर्मनुं कारणपणुं प्रगट

विशेष नक्की करे छे.

१२९
करे छे.
१४९

गुणविशेषथी द्रव्यविशेष छे एम जणावे छे. १३० मूर्त अने अमूर्त गुणोनां लक्षण तथा संबंध

पौद्गलिक प्राणोनी संततिनी प्रवृत्तिनो
अंतरंग हेतु
१५०

दर्शावे छे.

१३१
पौद्गलिक प्राणोनी संततिनी निवृत्तिनो

मूर्त पुद्गलद्रव्यना गुण

१३२
अंतरंग हेतु
१५१
आत्मानुं अत्यंत विभक्तपणुं साधवा माटे,

अमूर्त द्रव्योना गुणो

१३३
व्यवहार -जीवत्वना हेतु एवा जे गति-
विशिष्ट पर्यायो तेमनुं स्वरूप वर्णवे छे. १५२

द्रव्योनो प्रदेशवत्त्व अने अप्रदेशवत्त्वरूप

विशेष

१३५
पर्यायना भेद
१५३

प्रदेशी अने अप्रदेशी द्रव्यो क्यां रहेलां छे ते

अर्थनिश्चायक एवुं जे अस्तित्वतेने स्व -परना

जणावे छे.

१३६
विभागना हेतु तरीके समजावे छे. १५४

प्रदेशवत्त्व अने अप्रदेशवत्त्व कया प्रकारे

आत्माने अत्यंत विभक्त करवा माटे परद्रव्यना

संभवे छेते कहे छे.

१३७
संयोगना कारणनुं स्वरूप
१५५

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विषय

गाथा
विषय
गाथा

शुभ उपयोग अने अशुभ उपयोगनुं स्वरूप १५७ परद्रव्यना संयोगनुं जे कारण तेना विनाशने

जीवने स्वद्रव्यमां प्रवृत्ति अने परद्रव्यथी
निवृत्तिनी सिद्धिने माटे स्व -परनो
विभाग
१८२

अभ्यासे छे.

१५९
जीवने स्वद्रव्यमां प्रवृत्तिनुं निमित्त अने

शरीरादि परद्रव्य प्रत्ये मध्यस्थपणुं प्रगट

परद्रव्यमां प्रवृत्तिनुं निमित्त स्व -परना
विभागनुं ज्ञान -अज्ञान छे.

करे छे.

१६०
१८३

शरीर, वाणी अने मननुं परद्रव्यपणुं

१६१
आत्मानुं कर्म शुं छे तेनुं निरूपण
१८४

आत्माने परद्रव्यपणानो अभाव अने

‘पुद्गलपरिणाम आत्मानुं कर्म केम नथी’

परद्रव्यना कर्तापणानो अभाव

१६२
एवा संदेहने दूर करे छे.
१८५

परमाणुद्रव्योने पिंडपर्यायरूप परिणतिनुं

आत्मा कइ रीते पुद्गलकर्मो वडे ग्रहाय छे

कारण

१६३
अने मुकाय छेतेनुं निरूपण
१८६

आत्माने पुद्गलोना पिंडना कर्तृत्वनो

पुद्गलकर्मोना वैचित्र्यने कोण करे छे तेनुं

अभाव

१६७
निरूपण
१८७

आत्माने शरीरपणानो अभाव नक्की करे छे.१७१ जीवनुं असाधारण स्वलक्षण

एकलो ज आत्मा बंध छे
१८८
१७२
निश्चय अने व्यवहारनो अविरोध
१८९

अमूर्त आत्माने स्निग्ध -रूक्षपणानो अभाव

अशुद्ध नयथी अशुद्ध आत्मानी प्राप्ति
१९०

होवाथी बंध कइ रीते थइ शके

शुद्ध नयथी शुद्ध आत्मानी प्राप्ति
१९१

एवो पूर्वपक्ष
१७३
ध्रुवपणाने लीधे शुद्ध आत्मा ज उपलब्ध

उपरोक्त पूर्वपक्षनो उत्तर

१७४
करवायोग्य छे.
१९२

भावबंधनुं स्वरूप

१७५
शुद्धात्मानी उपलब्धिथी शुं थाय छे ते
निरूपे छे.
१९४

भावबंधनी युक्ति अने द्रव्यबंधनुं स्वरूप

१७६
मोहग्रंथि भेदवाथी शुं थाय छे ते कहे छे. १९५
एकाग्रसंचेतनलक्षणध्यान आत्माने

पुद्गलबंध, जीवबंध अने उभयबंधनुं

स्वरूप

१७७
अशुद्धता लावतुं नथी.
१९६

द्रव्यबंधनो हेतु भावबंध

१७८
सकळज्ञानी शुं ध्यावे छे?
१९७

भावबंध ते ज निश्चयबंध

१७९
उपरोक्त प्रश्ननो उत्तर
१९८

परिणामनुं द्रव्यबंधना साधकतम रागथी

शुद्धात्मानी उपलब्धि जेनुं लक्षण छे एवो

विशिष्टपणुं

१८०
मोक्षमार्गतेने नक्की करे छे.
१९९

विशिष्ट परिणामना भेदने तथा अविशिष्ट

आचार्यभगवानपूर्व प्रतिज्ञानुं निर्वहण

परिणामने, कारणमां कार्यनो उपचार करीने कार्यपणे दर्शावे छे.

करता थका,मोक्षमार्गभूत शुद्धात्म-
१८१
प्रवृत्ति करे छे.
२००

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(३) चरणानुयोगसूचक चूलिका

विषय

गाथा
विषय
गाथा
आचरण -प्रज्ञापन
उत्सर्ग ज वस्तुधर्म छे, अपवाद नहि’.
२२४
अपवादना विशेषो
२२५
दुःखमुक्ति माटे श्रामण्यमां जोडावानी
अनिषिद्ध शरीरमात्र -उपधिना पालननी

प्रेरणा

२०१
विधि
२२६

श्रमण थवा इच्छनार शुं शुं करे छे.

२०२
युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी

यथाजातरूपधरपणानां बहिरंग अने अंतरंग

ज छे.
२२७

एवां बे लिंगोनो उपदेश.

२०५
श्रमणने युक्ताहारीपणानी सिद्धि
२२८

श्रामण्य संबंधी भवतिक्रियाने विषे, आटलाथी

युक्ताहारनुं विस्तृत स्वरूप
२२९

श्रामण्यनी प्राप्ति थाय छे.

२०७
उत्सर्ग अने अपवादनी मैत्री वडे आचरणनुं

अविच्छिन्न सामायिकमां आरूढ थयो होवा छतां

सुस्थितपणुं
२३०

श्रमण कदाचित् छेदोपस्थानने योग्य २०८

उत्सर्ग अने अपवादना विरोध वडे आचरणनुं

आचार्यना भेदो

२१०
दुःस्थितपणुं; तथा आचरण - प्रज्ञापननी
समाप्ति.

छिन्न संयमना प्रतिसंधाननी विधि

२११
२३१

श्रामण्यना छेदनां आयतनो होवाथी परद्रव्य-

मोक्षमार्ग -प्रज्ञापन

प्रतिबंधो निषेधवा योग्य छे.

२१३
मोक्षमार्गना मूळसाधनभूत आगममां

श्रामण्यनी परिपूर्णतानुं आयतन होवाथी

व्यापार
२३२

स्वद्रव्यमां ज प्रतिबंध करवायोग्य छे. २१४

आगमहीनने मोक्षाख्य कर्मक्षय थतो नथी

मुनिजनने नजीकनो सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबंध

एवुं प्रतिपादन
२३३

पण निषेध्य छे.

२१५
मोक्षमार्गे जनाराओने आगम ज एक

छेद कोने कहेवामां आवे छे?

२१६
चक्षु छे.
२३४

छेदना अंतरंग अने बहिरंग एवा बे प्रकार२१७ सर्वथा अंतरंग छेद निषेध्य छे.

आगमचक्षु वडे बधुंय देखाय छे ज.
२३५
२१८
आगमज्ञान, तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान अने

उपधि अंतरंग छेदनी माफक छोडवा

तदुभयपूर्वक संयतत्वना युगपदपणाने
मोक्षमार्गपणुं होवानो नियम

योग्य छे.

२१९
२३६

उपधिनो निषेध ते अंतरंग छेदनो ज

आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वना अयुग-

निषेध छे.

२२०
पदपणाने मोक्षमार्गपणुं घटतुं नथी. २३७

‘कोइने क्यांक क्यारेक कोइ प्रकारे कोइक उपधि

आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वनुं

अनिषिद्ध पण छे’.

२२२
युगपदपणुं होवा छतां पण, आत्मज्ञान
मोक्षमार्गनुं साधकतम छे.
२३८

अनिषिद्ध उपधिनुं स्वरूप

२२३

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विषय

गाथा
विषय
गाथा

आत्मज्ञानशून्यने सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थ -

अविपरीत फळनुं कारण एवुं जे ‘अविपरीत

श्रद्धान तथा संयतत्वनुं युगपदपणुं पण अकिंचित्कर छे.

कारण’ तेनी उपासनारूप प्रवृत्ति सामान्य-
विशेषपणे करवायोग्य छे.
२३९
२६१

आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वना

श्रमणाभासो प्रत्ये सर्व प्रवृत्तिओ निषेधे छे. २६३
केवो जीव श्रमणाभास छे ते कहे छे.

युगपदपणानुं अने आत्मज्ञाननुं युगपदपणुं

२६४
२४०
जे श्रामण्ये समान छे तेनुं अनुमोदन नहि

संयतनुं लक्षण

२४१
करनारनो विनाश
२६५

संयतपणुं ते ज मोक्षमार्ग छे.

२४२
जे श्रामण्ये अधिक होय तेना प्रत्ये जाणे के ते

अनेकाग्रताने मोक्षमार्गपणुं घटतुं नथी.

२४३
श्रामण्ये हीन होय एम आचरण
करनारनो विनाश
२६६

एकाग्रता ते मोक्षमार्ग छे एम नक्की करता थका

मोक्षमार्ग -प्रज्ञापननो उपसंहार करे छे.२४४

पोते श्रामण्ये अधिक होय छतां पोतानाथी हीन
श्रमण प्रत्ये समान जेवुं आचरण करे तो
तेनो विनाश
शुभोपयोग -प्रज्ञापन
२६७

शुभोपयोगीओने श्रमण तरीके गौणपणे

असत्संग निषेध्य छे.
२६८

दर्शावे छे.

२४५
लौकिक जननुं लक्षण
२६९

शुभोपयोगी श्रमणनुं लक्षण

२४६
सत्संग करवायोग्य छे.
२७०

शुभोपयोगी श्रमणोनी प्रवृत्ति

२४७
पंचरत्न -प्रज्ञापन

बधीये प्रवृत्तिओ शुभोपयोगीओने ज

होय छे.

२४९
संसारतत्त्व
२७१

प्रवृत्ति संयमनी विरोधी होवानो निषेध

२५०
मोक्षतत्त्व
२७२

प्रवृत्तिना विषयना बे विभागो

२५१
मोक्षतत्त्वनुं साधनतत्त्व
२७३

प्रवृत्तिना काळनो विभाग

२५२
मोक्षतत्त्वना साधनतत्त्वने सर्वमनोरथना
स्थान तरीके अभिनंदे छे.
२७४

लोकनी साथे वातचीतनी प्रवृत्ति तेना निमित्तना

विभाग सहित दर्शावे छे.

२५३
शिष्यजनने शास्त्रफळ साथे जोडता थका
शास्त्रनी समाप्ति.
२७५

शुभोपयोगनो गौण -मुख्य विभाग

२५४
परिशिष्ट
पृष्ठ

शुभोपयोगने कारणनी विपरीतताथी फळनी

विपरीतता

२५५
४७ नयो द्वारा आत्मद्रव्यनुं कथन
४९३

अविपरीत फळनुं कारण एवुं जे ‘अविपरीत

आत्मद्रव्यनी प्राप्तिनो प्रकार
५०२

कारण’ ते दर्शावे छे.

२५९
LL

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साधक जीवनी द्रष्टि

अध्यात्ममां हंमेशां निश्चयनय ज मुख्य छे; तेना ज आश्रये धर्म थाय छे. शास्त्रोमां ज्यां विकारी पर्यायोनुं व्यवहारनयथी कथन करवामां आवे त्यां पण निश्चयनयने ज मुख्य अने व्यवहारनयने गौण करवानो आशय छेएम समजवुं; कारण के पुरुषार्थ वडे पोतामां शुद्धपर्याय प्रगट करवा अर्थात् विकारी पर्याय टाळवा माटे हंमेशां निश्चयनय ज आदरणीय छे; ते वखते बंने नयोनुं ज्ञान होय छे पण धर्म प्रगटाववा माटे बन्ने नयो कदी आदरणीय नथी. व्यवहारनयना आश्रये कदी धर्म अंशे पण थतो नथी, परंतु तेना आश्रये तो राग - द्वेषना विकल्पो ज ऊठे छे.

छये द्रव्यो, तेमना गुणो अने तेमना पर्यायोना स्वरूपनुं ज्ञान कराववा माटे कोई वखते निश्चयनयनी मुख्यता अने व्यवहारनयनी गौणता राखीने कथन करवामां आवे, अने कोई वखते व्यवहारनयने मुख्य करीने तथा निश्चयनयने गौण राखीने कथन करवामां आवे; पोते विचार करे तेमां पण कोई वखते निश्चयनयनी मुख्यता अने कोई वखते व्यवहारनयनी मुख्यता करवामां आवे; अध्यात्मशास्त्रमां पण जीवनो विकारी पर्याय जीव स्वयं करे छे तेथी थाय छे अने ते जीवनो अनन्य परिणाम छेएम व्यवहारनये कहेवामांसमजाववामां आवे; पण ते दरेक वखते निश्चयनय एक ज मुख्य अने आदरणीय छे एम ज्ञानीओनुं कथन छे. शुद्धता प्रगट करवा माटे कोई वखते निश्चयनय आदरणीय छे अने कोई वखते व्यवहारनय आदरणीय छेएम मानवुं ते भूल छे. त्रणे काळे एकला निश्चयनयना आश्रये ज धर्म प्रगटे छे एम समजवुं.

साधक जीवो शरूआतथी अंत सुधी निश्चयनी ज मुख्यता राखीने व्यवहारने गौण ज करता जाय छे, तेथी साधकदशामां निश्चयनी मुख्यताना जोरे साधकने शुद्धतानी वृद्धि ज थती जाय छे अने अशुद्धता टळती ज जाय छे. ए रीते निश्चयनी मुख्यताना जोरे पूर्ण केवळज्ञान थतां त्यां मुख्य - गौणपणुं होतुं नथी अने नय पण होता नथी.


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नमः श्रीसर्वज्ञवीतरागाय
शास्त्र -स्वाध्यायनुं प्रारंभिक मंगलाचरण
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ।।१।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलङ्का
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ।।२।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।३।।
श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ।।
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं,
पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री प्रवचनसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृण्वन्तु
।।
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी
मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।।१।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ।।२।।

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नमः श्रीसिद्धेभ्यः।
नमोऽनेकान्ताय।
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
प्रवचनसार
ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृततत्त्वप्रदीपिकावृत्तिः।
( अनुष्टुभ् )
सर्वव्याप्येकचिद्रूपस्वरूपाय परात्मने
स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ।।१।।
श्रीजयसेनाचार्यकृततात्पर्यवृत्तिः।
नमः परमचैतन्यस्वात्मोत्थसुखसम्पदे
परमागमसाराय सिद्धाय परमेष्ठिने ।।
मूळ गाथाओनो अने तत्त्वप्रदीपिका नामनी टीकानो
गुजराती अनुवाद

[प्रथम, ग्रंथना आदिमां श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवविरचित प्राकृतगाथाबद्ध आ ‘प्रवचनसार’ नामना शास्त्रनी ‘तत्त्वप्रदीपिका’ नामनी संस्कृत टीका रचनार श्री अमृतचंद्रा- चार्यदेव श्लोक द्वारा मंगळाचरण करतां ज्ञानानंदस्वरूप परमात्माने नमस्कार करे छेः]

[अर्थः] सर्वव्यापी (अर्थात् सर्वने देखनारजाणनार) एक चैतन्यरूप (मात्र चैतन्य ज) जेनुं स्वरूप छे अने जे स्वानुभवप्रसिद्ध छे (अर्थात् शुद्ध आत्माना अनुभवथी प्रकृष्टपणे सिद्ध छे) ते ज्ञानानंदात्मक (ज्ञान ने आनंदस्वरूप) उत्कृष्ट आत्माने नमस्कार. प्र. १


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( अनुष्टुभ् )
हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं जयत्यदः
प्रकाशयज्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं महः ।।२।।
( आर्या )
परमानन्दसुधारसपिपासितानां हिताय भव्यानाम्
क्रियते प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ।।३।।

अथ प्रवचनसारव्याख्यायां मध्यमरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थायां मुख्यगौणरूपेणान्तस्तत्त्वबहि- स्तत्त्वप्ररूपणसमर्थायां च प्रथमत एकोत्तरशतगाथाभिर्ज्ञानाधिकारः, तदनन्तरं त्रयोदशाधिक शतगाथाभि- र्दर्शनाधिकारः, ततश्च सप्तनवतिगाथाभिश्चारित्राधिकारश्चेति समुदायेनैकादशाधिकत्रिशतप्रमितसूत्रैः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपेण महाधिकारत्रयं भवति अथवा टीकाभिप्रायेण तु सम्यग्ज्ञानज्ञेयचारित्रा- धिकारचूलिकारूपेणाधिकारत्रयम् तत्राधिकारत्रये प्रथमतस्तावज्ज्ञानाभिधानमहाधिकारमध्ये द्वासप्त- तिगाथापर्यन्तं शुद्धोपयोगाधिकारः कथ्यते तासु द्वासप्ततिगाथासु मध्ये ‘एस सुरासुर --’ इमां गाथामादिं कृत्वा पाठक्रमेण चतुर्दशगाथापर्यन्तं पीठिका, तदनन्तरं सप्तगाथापर्यन्तं सामान्येन सर्वज्ञ- सिद्धिः, तदनन्तरं त्रयस्त्रिंशद्गाथापर्यन्तं ज्ञानप्रपञ्चः, ततश्चाष्टादशगाथापर्यन्तं सुखप्रपञ्चश्चेत्यन्तराधि- कारचतुष्टयेन शुद्धोपयोगाधिकारो भवति अथ पञ्चविंशतिगाथापर्यन्तं ज्ञानकण्डिकाचतुष्टयप्रति- पादकनामा द्वितीयोऽधिकारश्चेत्यधिकारद्वयेन, तदनन्तरं स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन चैकोत्तरशतगाथाभिः प्रथममहाधिकारे समुदायपातनिका ज्ञातव्या

इदानीं प्रथमपातनिकाभिप्रायेण प्रथमतः पीठिकाव्याख्यानं क्रियते, तत्र पञ्चस्थलानि भवन्ति; तेष्वादौ नमस्कारमुख्यत्वेन गाथापञ्चकं, तदनन्तरं चारित्रसूचनमुख्यत्वेन ‘संपज्जइ णिव्वाणं’ इति प्रभृति गाथात्रयमथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयसूचनमुख्यत्वेन ‘जीवो परिणमदि’ इत्यादिगाथासूत्रद्वयमथ तत्फलकथनमुख्यतया ‘धम्मेण परिणदप्पा’ इति प्रभृति सूत्रद्वयम् अथ शुद्धोपयोगध्यातुः पुरुषस्य प्रोत्साहनार्थं शुद्धोपयोगफलदर्शनार्थं च प्रथमगाथा, शुद्धोपयोगिपुरुषलक्षणकथनेन द्वितीया चेति ‘अइसयमादसमुत्थं’ इत्यादि गाथाद्वयम् एवं पीठिकाभिधानप्रथमान्तराधिकारे स्थलपञ्चकेन चतुर्दशगाथाभिस्समुदायपातनिका तद्यथा

[हवे अनेकान्तमय ज्ञाननी मंगळ अर्थे श्लोक द्वारा स्तुति करे छेः] [अर्थः] महा मोहरूपी अंधकारना समूहने जे लीलामात्रमां नष्ट करे छे अने जगतना स्वरूपने प्रकाशे छे एवुं अनेकान्तमय तेज सदा जयवंत वर्ते छे.

[हवे श्लोक द्वारा श्री अमृतचंद्राचार्यदेव अनेकान्तमय जिनप्रवचनना सारभूत आ ‘प्रवचनसार’ शास्त्रनी टीका करवानी प्रतिज्ञा करे छेः]

[अर्थः] परमानंदरूपी सुधारसना पिपासु भव्य जीवोना हितने माटे, तत्त्वने (वस्तुस्वरूपने) जे प्रगट करे छे एवी प्रवचनसारनी आ टीका करवामां आवे छे.


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अथ खलु कश्चिदासन्नसंसारपारावारपारः समुन्मीलितसातिशयविवेकज्योतिरस्तमित- समस्तैकान्तवादाविद्याभिनिवेशः पारमेश्वरीमनेकान्तवादविद्यामुपगम्य मुक्तसमस्तपक्षपरिग्रह- तयात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा सकलपुरुषार्थसारतया नितान्तमात्मनो हिततमां भगवत्पञ्चपरमेष्ठि- प्रसादोपजन्यां परमार्थसत्यां मोक्षलक्ष्मीमक्षयामुपादेयत्वेन निश्चिन्वन् प्रवर्तमानतीर्थनायक- पुरःसरान् भगवतः पञ्चपरमेष्ठिनः प्रणमनवन्दनोपजनितनमस्करणेन सम्भाव्य सर्वारम्भेण मोक्षमार्गं संप्रतिपद्यमानः प्रतिजानीते

अथ कश्चिदासन्नभव्यः शिवकुमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतविपरीत- चतुर्गतिसंसारदुःखभयभीतः, समुत्पन्नपरमभेदविज्ञानप्रकाशातिशयः, समस्तदुर्नयैकान्तनिराकृतदुराग्रहः, परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपातेनात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा धर्मार्थकामेभ्यः सारभूतामत्यन्तात्महिताम- विनश्वरां पंचपरमेष्ठिप्रसादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः, श्रीवर्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेव- प्रमुखान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाश्रयामीति प्रतिज्ञां करोति

[आ रीते मंगळाचरण अने टीका करवानी प्रतिज्ञा करीने, भगवान कुंदकुंदाचार्य- देवविरचित प्रवचनसारनी पहेली पांच गाथाओना प्रारंभमां श्री अमृतचंद्राचार्यदेव ते गाथाओनी उत्थानिका करे छेः ]

हवे, संसारसमुद्रनो किनारो जेमने निकट छे एवा कोई (आसन्नभव्य महात्मा श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव), सातिशय (उत्तम) विवेकज्योति जेमने प्रगट थई छे (अर्थात् परम भेदविज्ञाननो प्रकाश जेमने उत्पन्न थयो छे) अने समस्त एकान्तवादरूप अविद्यानो अभिनिवेश जेमने अस्त थयो छे एवा, पारमेश्वरी (परमेश्वर जिनभगवाननी) अनेकान्तवादविद्याने पामीने, समस्त पक्षनो परिग्रह (शत्रुमित्रादिनो समस्त पक्षपात) छोड्यो होवाथी अत्यंत मध्यस्थ थईने, सर्व पुरुषार्थमां सारभूत होवाथी जे आत्माने अत्यंत हिततम छे एवी, भगवंत पंचपरमेष्ठीना प्रसादथी ऊपजवायोग्य, परमार्थसत्य (पारमार्थिक रीते साची), अक्षय (अविनाशी) मोक्षलक्ष्मीने उपादेयपणे नक्की करता थका, प्रवर्तमान तीर्थना नायक (श्री महावीरस्वामी) पूर्वक भगवंत पंचपरमेष्ठीने प्रणमन अने वंदनथी थता नमस्कार वडे संभावीने (सन्मानीने) सर्व आरंभथी (उद्यमथी) मोक्षमार्गनो आश्रय करता थका, प्रतिज्ञा करे छेः

१. अभिनिवेश=अभिप्राय; निश्चय; आग्रह.
२. धर्म, अर्थ, काम ने मोक्ष ए चारे पुरुष -अर्थोमां (पुरुष -प्रयोजनोमां) मोक्ष ज सारभूत (श्रेष्ठ, तात्त्विक)
पुरुष -अर्थ छे.

३. हिततम=उत्कृष्ट हितस्वरूप
४. प्रसाद=प्रसन्नता; कृपा.
५. उपादेय=ग्रहण करवा योग्य. (मोक्षरूपी लक्ष्मी हिततम, साची अने अविनाशी होवाथी उपादेय छे.)
६.
प्रणमन=देहथी नमवुं ते. वंदन=वचनथी स्तुति करवी ते. (नमस्कारमां प्रणमन अने वंदन बंने समाय छे.)


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अथ सूत्रावतार :
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं
पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।।१।।
सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे
समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ।।२।।
ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं
वंदामि य वट्टंते अरहंते माणुसे खेत्ते ।।३।।
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ।।४।।

पणमामीत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियतेपणमामि प्रणमामि स कः कर्ता एस एषोऽहं ग्रन्थकरणोद्यतमनाः स्वसंवेदनप्रत्यक्षः कं वड्ढमाणं अवसमन्तादृद्धं वृद्धं मानं प्रमाणं ज्ञानं यस्य स भवति वर्धमानः, ‘अवाप्योरलोपः’ इति लक्षणेन भवत्यकारलोपोऽवशब्दस्यात्र, तं रत्नत्रयात्मकप्रवर्तमानधर्मतीर्थोपदेशकं श्रीवर्धमानतीर्थकरपरमदेवम् क्व प्रणमामि प्रथमत एव किंविशिष्टं सुरासुरमणुसिंदवंदिदं त्रिभुवनाराध्यानन्तज्ञानादिगुणाधारपदाधिष्ठितत्वात्तत्पदाभिलाषिभिस्त्रि- भुवनाधीशैः सम्यगाराध्यपादारविन्दत्वाच्च सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितम् पुनरपि किंविशिष्टं धोदघाइ-

हवे (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवविरचित) गाथासूत्रोनुं अवतरण करवामां आवे छेः
(हरिगीत)
सुर -असुर -नरपतिवंद्यने, प्रविनष्टघातिकर्मने,
प्रणमन करुं हुं धर्मकर्ता तीर्थ श्रीमहावीरने; १.
वळी शेष तीर्थंकर अने सौ सिद्ध शुद्धास्तित्वने,
मुनि ज्ञान -द्रग -चारित्र -तप -वीर्याचरणसंयुक्तने. २.
ते सर्वने साथे तथा प्रत्येकने प्रत्येकने,
वंदुं वळी हुं मनुष्यक्षेत्रे वर्तता अर्हंतने. ३.
अर्हंतने, श्री सिद्धनेय नमस्करण करी ए रीते,
गणधर अने अध्यापकोने, सर्वसाधुसमूहने; ४.

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तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ।।५।। [ पणगं ]
एष सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं धौतघातिकर्ममलम्
प्रणमामि वर्धमानं तीर्थं धर्मस्य कर्तारम् ।।१।।
शेषान् पुनस्तीर्थकरान् ससर्वसिद्धान् विशुद्धसद्भावान्
श्रमणांश्च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ।।२।।
तांस्तान् सर्वान् समकं समकं प्रत्येकमेव प्रत्येकम्
वन्दे च वर्तमानानर्हतो मानुषे क्षेत्रे ।।३।।

कम्ममलं परमसमाधिसमुत्पन्नरागादिमलरहितपारमार्थिकसुखामृतरूपनिर्मलनीरप्रक्षालितघातिकर्ममल- त्वादन्येषां पापमलप्रक्षालनहेतुत्वाच्च धौतघातिकर्ममलम् पुनश्च किंलक्षणम् तित्थं दृष्टश्रुतानुभूत- विषयसुखाभिलाषरूपनीरप्रवेशरहितेन परमसमाधिपोतेनोत्तीर्णसंसारसमुद्रत्वात् अन्येषां तरणोपाय- भूतत्वाच्च तीर्थम् पुनश्च किंरूपम् धम्मस्स कत्तारं निरुपरागात्मतत्त्वपरिणतिरूपनिश्चयधर्मस्योपादान-

तसु शुद्धदर्शनज्ञानमुख्य पवित्र आश्रम पामीने,
प्राप्ति करुं हुं साम्यनी, जेनाथी शिवप्राप्ति बने.५.

अन्वयार्थः[ एषः ] आ हुं [ सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं ] सुरेन्द्रो, असुरेन्द्रो अने नरेन्द्रोथी जे वंदित छे अने [ धौतघातिक र्ममलं ] घातिकर्ममळ जेमणे धोई नाखेल छे एवा [ तीर्थं ] तीर्थरूप अने [ धर्मस्य क र्तारं ] धर्मना कर्ता [ वर्धमानं ] श्री वर्धमानस्वामीने [ प्रणमामि ] प्रणमुं छुं.

[ पुनः ] वळी [ विशुद्धसद्भावान् ] विशुद्ध सत्तावाळा [ शेषान् तीर्थक रान् ] शेष तीर्थंकरोने [ ससर्वसिद्धान् ] सर्व सिद्धभगवंतो साथे, [ च ] अने [ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचारवाळा [ श्रमणान् ] श्रमणोने प्रणमुं छुं.

[ तान् तान् सर्वान् ] ते ते सर्वने [च] तथा [ मानुषे क्षेत्रे वर्तमानान् ] मनुष्यक्षेत्रमां वर्तता [ अर्हतः ] अर्हन्तोने [ समकं समकं ] साथे साथेसमुदायरूपे अने [ प्रत्येकं एव प्रत्येकं ] प्रत्येक प्रत्येकनेव्यक्तिगत [ वन्दे ] वंदुं छुं.

१. सुरेन्द्रो = ऊर्ध्वलोकवासी देवोना इन्द्रो २. असुरेन्द्रो = अधोलोकवासी देवोना इन्द्रो

३. नरेन्द्रो = (मध्यलोकवासी) मनुष्योना अधिपतिओ; राजाओ.

४. सत्ता = अस्तित्व

५. श्रमणो = आचार्यो, उपाध्यायो ने साधुओ.


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कृत्वार्हद्भयः सिद्धेभ्यस्तथा नमो गणधरेभ्यः
अध्यापकवर्गेभ्यः साधुभ्यश्चैव सर्वेभ्यः ।।४।।
तेषां विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं समासाद्य
उपसम्पद्ये साम्यं यतो निर्वाणसम्प्राप्तिः ।।५।।

एष स्वसंवेदनप्रत्यक्षदर्शनज्ञानसामान्यात्माहं सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितत्वात्त्रिलोकैकगुरुं, धौतघातिकर्ममलत्वाज्जगदनुग्रहसमर्थानन्तशक्तिपारमैश्वर्यं, योगिनां तीर्थत्वात्तारणसमर्थं, धर्मकर्तृ- त्वाच्छुद्धस्वरूपवृत्तिविधातारं, प्रवर्तमानतीर्थनायकत्वेन प्रथमत एव परमभट्टारकमहादेवाधिदेव- परमेश्वरपरमपूज्यसुगृहीतनामश्रीवर्धमानदेवं प्रणमामि ।।१।। तदनु विशुद्धसद्भावत्वादुपात्त- कारणत्वात् अन्येषामुत्तमक्षमादिबहुविधधर्मोपदेशकत्वाच्च धर्मस्य कर्तारम् इति क्रियाकारकसम्बन्धः एवमन्तिमतीर्थकरनमस्कारमुख्यत्वेन गाथा गता ।।१।। तदनन्तरं प्रणमामि कान् सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे शेषतीर्थकरान्, पुनः ससर्वसिद्धान् वृषभादिपार्श्वपर्यन्तान् शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणसर्वसिद्ध- सहितानेतान् सर्वानपि कथंभूतान् विसुद्धसब्भावे निर्मलात्मोपलब्धिबलेन विश्लेषिताखिलावरण- त्वात्केवलज्ञानदर्शनस्वभावत्वाच्च विशुद्धसद्भावान् समणे य श्रमणशब्दवाच्यानाचार्योपाध्यायसाधूंश्च किंलक्षणान् णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे सर्वविशुद्धद्रव्यगुणपर्यायात्मके चिद्वस्तुनि यासौ रागादि-

ए रीते [ अर्हद्भयः ] अर्हन्तोने अने [ सिद्धेभ्यः ] सिद्धोने, [ तथा गणधरेभ्यः ] आचार्योने, [ अध्यापक वर्गेभ्यः ] उपाध्यायवर्गने [च एव] अने [ सर्वेभ्यः साधुभ्यः ] सर्व साधुओने [ नमः कृ त्वा ] नमस्कार करीने, [ तेषां ] तेमना [ विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं ] विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान आश्रमने [ समासाद्य ] पामीने [ साम्यं उपसम्पद्ये ] हुं साम्यने प्राप्त करुं छुं [ यतः ] के जेनाथी [ निर्वाणसम्प्राप्तिः ] निर्वाणनी प्राप्ति थाय छे.

टीकाःस्वसंवेदनप्रत्यक्ष दर्शनज्ञानसामान्यस्वरूप हुं, जे सुरेन्द्रो, असुरेन्द्रो अने नरेन्द्रोथी वंदित होवाथी त्रिलोकना एक (अनन्य, सर्वोत्कृष्ट) गुरु छे, घातिकर्ममळ धोई नाखेल होवाथी जेमने जगत पर अनुग्रह करवामां समर्थ एवी अनंतशक्तिरूप परमेश्वरता छे, तीर्थपणाने लीधे जे योगीओने तारवाने समर्थ छे, धर्मना कर्ता होवाथी जे शुद्धस्वरूपपरिणतिना करनार छे, ते परम भट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर, परम पूज्य, जेमनुं नाम ग्रहण पण सारुं छे एवा श्री वर्धमानदेवने, प्रवर्तमान तीर्थना नायकपणाने लीधे प्रथम ज, प्रणमुं छुं.

१. विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान = विशुद्धदर्शन अने ज्ञान जेमां प्रधान (मुख्य) छे एवा

२. साम्य = समता; समभाव.

३. स्वसंवेदनप्रत्यक्ष = स्वानुभवथी प्रत्यक्ष. (दर्शनज्ञानसामान्य स्वानुभवथी प्रत्यक्ष छे.)

४. दर्शनज्ञानसामान्यस्वरूप = दर्शनज्ञानसामान्य अर्थात् चेतना जेनुं स्वरूप छे एवो.


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पाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावान् शेषानतीततीर्थनायकान्, सर्वान् सिद्धांश्च, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारयुक्तत्वात्संभावितपरमशुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्याय- साधुत्वविशिष्टान् श्रमणांश्च प्रणमामि ।।२।। तदन्वेतानेव पञ्चपरमेष्ठिनस्तत्तद्वयक्तिव्यापिनः सर्वानेव सांप्रतमेतत्क्षेत्रसंभवतीर्थकरासंभवान्महाविदेहभूमिसंभवत्वे सति मनुष्यक्षेत्रप्रवर्तिभि- स्तीर्थनायकैः सह वर्तमानकालं गोचरीकृत्य युगपद्युगपत्प्रत्येकं प्रत्येकं च मोक्षलक्ष्मीस्वयं- वरायमाणपरमनैर्ग्रन्थ्यदीक्षाक्षणोचितमङ्गलाचारभूतकृतिकर्मशास्त्रोपदिष्टवन्दनाभिधानेन सम्भाव- विकल्परहितनिश्चलचित्तवृत्तिस्तदन्तर्भूतेन व्यवहारपञ्चाचारसहकारिकारणोत्पन्नेन निश्चयपञ्चाचारेण परिणतत्वात् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारोपेतानिति एवं शेषत्रयोविंशतितीर्थकरनमस्कार- मुख्यत्वेन गाथा गता ।।२।। अथ ते ते सव्वे तांस्तान्पूर्वोक्तानेव पञ्चपरमेष्ठिनः सर्वान् वंदामि य वन्दे, अहं कर्ता कथं समगं समगं समुदायवन्दनापेक्षया युगपद्युगपत् पुनरपि कथं पत्तेगमेव पत्तेगं प्रत्येकवन्दनापेक्षया प्रत्येकं प्रत्येकम् न केवलमेतान् वन्दे अरहंते अर्हतः किंविशिष्टान् वट्टंते माणुसे खेत्ते वर्तमानान् क्व मानुषे क्षेत्रे तथा हि ---साम्प्रतमत्र भरतक्षेत्रे तीर्थकराभावात् पञ्च-

त्यारपछी जेओ विशुद्धसत्तावाळा होवाथी तापथी उत्तीर्ण थयेला (छेल्लो ताप देवाईने अग्निमांथी बहार नीकळेला) उत्तम सुवर्ण समान शुद्ध दर्शनज्ञानस्वभावने पाम्या छे एवा शेष अतीत तीर्थंकरोने अने सर्व सिद्धोने, तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार ने वीर्याचार सहित होवाथी जेमणे परम शुद्ध उपयोगभूमिकाने प्राप्त करी छे एवा श्रमणोनेके जेओ आचार्यत्व, उपाध्यायत्व अने साधुत्वरूप विशेषोथी विशिष्ट (भेदवाळा) छे तेमनेप्रणमुं छुं.

त्यारपछी आ ज पंचपरमेष्ठीने, ते ते व्यक्तिमां (पर्यायमां) व्यापनारा बधायने, हालमां आ क्षेत्रे उत्पन्न तीर्थंकरोनो अभाव होवाथी अने महाविदेहक्षेत्रमां तीर्थंकरोनो सद्भाव होवाथी मनुष्यक्षेत्रमां प्रवर्तता तीर्थनायको सहित वर्तमानकाळगोचर करीने, (महाविदेहक्षेत्रमां वर्तता श्री सीमंधरादि तीर्थंकरोनी जेम जाणे बधाय पंचपरमेष्ठी भगवंतो वर्तमानकाळमां ज वर्तता होय एम अत्यंत भक्तिने लीधे भावीनेचिंतवीने, तेमने) युगपद् युगपद् अर्थात् समुदायरूपे अने प्रत्येक प्रत्येकने अर्थात् व्यक्तिगतरूपे संभावुं छुं. कई रीते संभावुं छुं? मोक्षलक्ष्मीना स्वयंवर समान जे परम निर्ग्रंथतानी दीक्षानो उत्सव (आनंदमय प्रसंग) तेने उचित मंगळाचरणभूत जे कृतिकर्मशास्त्रोपदिष्ट वंदनोच्चार (कृतिकर्मशास्त्रे उपदेशेलां स्तुतिवचन) ते वडे संभावुं छुं.

१. अतीत = गत; थई गयेला; भूतकाळना.

२. संभाववुं = संभावना करवी; सन्मान करवुं; आराधवुं.

३. अंगबाह्य १४ प्रकीर्णकोमां छट्ठुं प्रकीर्णक ‘कृतिकर्म’ छे, जेमां नित्य -नैमित्तिक क्रियानुं वर्णन छे.


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यामि ।।३।। अथैवमर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां प्रणतिवन्दनाभिधानप्रवृत्तद्वैतद्वारेण भाव्य- भावकभावविजृम्भितातिनिर्भर्रेतरेतरसंवलनबलविलीननिखिलस्वपरविभागतया प्रवृत्ताद्वैतं नमस्कारं कृत्वा ।।४।। तेषामेवार्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधानत्वेन सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावात्मतत्त्वश्रद्धानावबोधलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानसंपादकमाश्रमं समासाद्य सम्यग्दर्शनज्ञानसंपन्नो भूत्वा, जीवत्कषायकणतया पुण्यबन्धसंप्राप्तिहेतुभूतं सरागचारित्रं महाविदेहस्थितश्रीसीमन्धरस्वामीतीर्थकरपरमदेवप्रभृतितीर्थकरैः सह तानेव पञ्चपरमेष्ठिनो नमस्करोमि कया करणभूतया मोक्षलक्ष्मीस्वयंवरमण्डपभूतजिनदीक्षाक्षणे मङ्गलाचारभूतया अनन्तज्ञानादिसिद्धगुण- भावनारूपया सिद्धभक्त्या, तथैव निर्मलसमाधिपरिणतपरमयोगिगुणभावनालक्षणया योगभक्त्या चेति एवं पूर्वविदेहतीर्थकरनमस्कारमुख्यत्वेन गाथा गतेत्यभिप्रायः ।।३।। अथ किच्चा कृत्वा कम् णमो नमस्कारम् केभ्यः अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव अर्हत्सिद्धगणधरो- पाध्यायसाधुभ्यश्चैव कतिसंख्योपेतेभ्यः सव्वेसिं सर्वेभ्यः इति पूर्वगाथात्रयेण कृतपञ्च- परमेष्ठिनमस्कारोपसंहारोऽयम् ।।४।। एवं पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं कृत्वा किं करोमि उवसंपयामि उपसंपद्ये

हवे ए रीते अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुने, प्रणाम अने वंदनोच्चार वडे प्रवर्तता द्वैत द्वारा, भाव्यभावकपणाने लीधे ऊपजेला अति गाढ इतरेतर मिलनना कारणे समस्त स्वपरनो विभाग विलीन थई जवाथी जेमां अद्वैत प्रवर्ते छे एवो नमस्कार करीने, ते ज अर्हंत -सिद्ध -आचार्य -उपाध्याय -सर्वसाधुना आश्रमनेके जे (आश्रम) विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधान होवाथी सहजशुद्धदर्शनज्ञान- स्वभाववाळा आत्मतत्त्वनां श्रद्धान ने ज्ञान जेमनां लक्षण छे एवां सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननो संपादक छे तेनेपामीने, सम्यग्दर्शनज्ञानसंपन्न थईने, जेमां कषायकण विद्यमान होवाथी जीवने जे पुण्यबंधनी प्राप्तिनुं कारण छे एवा सरागचारित्रनेते

जोके नमस्कारमां (१) प्रणाम अने (२) वंदनोच्चार बन्ने समातां होवाथी तेमां द्वैत (बे -पणुं)

कह्युं छे तोपण तीव्र भक्तिभावथी स्वपरनो भेद विलीन थई जवानी अपेक्षाए तो तेमां अद्वैत प्रवर्ते छे.

१. भाव्य=भाववायोग्य; चिंतववायोग्य; ध्यान करवा योग्य अर्थात् ध्येय. भावक=भावनार; चिंतवनार; ध्यान करनार अर्थात् ध्याता.

२. इतरेतर मिलन=एकबीजानुंपरस्परमळी जवुं अर्थात् मिश्रित थई जवुं.

३. पंच परमेष्ठी प्रत्ये अत्यंत आराध्यभावने लीधे आराध्य एवा पंच परमेष्ठी भगवंतोनो अने आराधक एवा पोतानो भेद विलय पामे छे. आ रीते नमस्कारमां अद्वैत प्रवर्ते छे.

४. सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाववाळा=सहज शुद्ध दर्शन अने ज्ञान जेनो स्वभाव छे एवा

५. संपादक=प्राप्त करावनार; उत्पन्न करनार.

६. कषायकण=कषायनो नानो अंश


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क्रमापतितमपि दूरमुत्क्रम्य सकलकषायकलिकलङ्कविविक्ततया निर्वाणसंप्राप्तिहेतुभूतं वीतरागचारित्राख्यं साम्यमुपसम्पद्ये सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैक्यात्मकैकाग्र्यं गतोऽस्मीति प्रतिज्ञार्थः एवं तावदयं साक्षान्मोक्षमार्गं सम्प्रतिपन्नः ।।५।।

अथायमेव वीतरागसरागचारित्रयोरिष्टानिष्टफलत्वेनोपादेयहेयत्वं विवेचयति
संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं
जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो ।।६।।

समाश्रयामि किम् सम्मं साम्यं चारित्रम् यस्मात् किं भवति जत्तो णिव्वाणसंपत्ती यस्मान्निर्वाणसंप्राप्तिः किं कृत्वा पूर्वं समासिज्ज समासाद्य प्राप्य कम् विसुद्धणाणदंसणपहाणासमं विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणप्रधानाश्रमम् केषां सम्बन्धित्वेन तेसिं तेषां पूर्वोक्तपञ्चपरमेष्ठिनामिति तथाहिअहमाराधकः, एते चार्हदादय आराध्या, इत्याराध्याराधकविकल्परूपो द्वैतनमस्कारो भण्यते रागाद्युपाधिविकल्परहितपरमसमाधिबलेनात्मन्येवाराध्याराधकभावः पुनरद्वैतनमस्कारो भण्यते इत्येवं- लक्षणं पूर्वोक्तगाथात्रयकथितप्रकारेण पञ्चपरमेष्ठिसम्बन्धिनं द्वैताद्वैतनमस्कारं कृत्वा ततः किं करोमि रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभावः परमात्मेति भेदज्ञानं, तथा स एव सर्वप्रकारोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वमित्युक्तलक्षणज्ञानदर्शनस्वभावं, मठचैत्यालयादिलक्षणव्यवहाराश्रमाद्विलक्षणं, भावा- श्रमरूपं प्रधानाश्रमं प्राप्य, तत्पूर्वकं क्रमायातमपि सरागचारित्रं पुण्यबन्धकारणमिति ज्ञात्वा परिहृत्य (सरागचारित्र) क्रमे आवी पड्युं होवा छतां (गुणस्थान -आरोहणना क्रममां जबरजस्तीथी अर्थात् चारित्रमोहना मंद उदयथी आवी पडेलुं होवा छतां)


दूर ओळंगी जईने, जे समस्त कषायकलेशरूप कलंकथी भिन्न होवाथी निर्वाणनी प्राप्तिनुं कारण छे एवा वीतरागचारित्र नामना साम्यने प्राप्त करुं छुं. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्रना ऐक्यस्वरूप एकाग्रताने हुं अवलंब्यो छुं एवो (आ) प्रतिज्ञानो अर्थ छे. आ रीते त्यारे आमणे (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवे) साक्षात् मोक्षमार्गने अंगीकार कर्यो. १५.

हवे आ ज (भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव) वीतरागचारित्र इष्ट फळवाळुं होवाथी तेनुं उपादेयपणुं अने सरागचारित्र अनिष्ट फळवाळुं होवाथी तेनुं हेयपणुं विवेचे छेः

सुर -असुर -मनुजेन्द्रो तणा विभवो सहित निर्वाणनी
प्राप्ति करे चारित्रथी जीव ज्ञानदर्शनमुख्यथी. ६.
प्र. २