Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 544

 

[ 8 ]
आचार्यभगवाने मुमुक्षुओने अतीन्द्रिय ज्ञान अने सुखनी रुचि तथा श्रद्धा करावी छे अने
छेल्ली गाथाओमां मोहरागद्वेषने निर्मूळ करवानो जिनोक्त यथार्थ उपाय संक्षेपमां दर्शाव्यो छे.

बीजा श्रुतस्कंधनुं नाम ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन छे. अनादि काळथी परिभ्रमण करतो जीव बधुं करी चूक्यो छे पण स्व -परनुं भेदविज्ञान तेणे कदी कर्युं नथी. ‘बंधमार्गमां तेम ज मोक्षमार्गमां जीव एकलो ज कर्ता, कर्म, करण अने कर्मफळ बने छे, पर साथे तेने कदीये कांई ज संबंध नथी’ एवी सानुभव श्रद्धा तेने कदी थई नथी. तेथी हजारो मिथ्या उपायो करवा छतां ते दुःखमुक्त थतो नथी. आ श्रुतस्कंधमां आचार्यभगवाने दुःखनुं मूळ छेदवानुं साधन भेदविज्ञानसमजाव्युं छे. ‘जगतनुं प्रत्येक सत् अर्थात् प्रत्येक द्रव्य उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य सिवाय के गुणपर्याय -समूह सिवाय बीजुं कांई ज नथी. सत् कहो, द्रव्य कहो, उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य कहो, गुणपर्यायपिंड कहोए बधुं एक ज छे.’ आ, त्रिकाळज्ञ जिनभगवंतोए साक्षात् देखेला वस्तुस्वरूपनो मूळभूतपायानोसिद्धांत छे. वीतरागविज्ञाननो आ मूळभूत सिद्धांत शरूआतनी घणी गाथाओमां अत्यंत अत्यंत सुंदर रीते कोई लोकोत्तर वैज्ञानिकनी ढबथी समजाववामां आव्यो छे. त्यां द्रव्यसामान्यनुं स्वरूप जे अलौकिक शैलीथी सिद्ध कर्युं छे तेनो ख्याल वाचकने ए भाग जाते ज वांच्या विना आववो अशक्य छे. खरेखर प्रवचनसारमां वर्णवेलुं आ द्रव्यसामान्यनिरूपण अत्यंत अबाध्य अने परम प्रतीतिकर छे. ए रीते द्रव्यसामान्यना ज्ञानरूपी सुद्रढ भूमिका रचीने, द्रव्यविशेषनुं असाधारण वर्णन, प्राणादिथी जीवनुं भिन्नपणुं, जीव देहादिकनो कर्ता -कारयिता -अनुमंता नथी ए हकीकत, जीवने पुद्गलपिंडनुं अकर्तापणुं, निश्चयबंधनुं स्वरूप, शुद्धात्मानी उपलब्धिनुं फळ, एकाग्रसंचेतनलक्षण ध्यान वगेरे अनेक विषयो अति स्पष्ट रीते समजाववामां आव्या छे. ए बधामां स्व -परनुं भेदविज्ञान ज नीतरी रह्युं छे. आखा अधिकारमां वीतरागप्रणीत द्रव्यानुयोगनुं सत्त्व ठांसी ठांसीने भर्युं छे, जिनशासनना मौलिक सिद्धांतोने अबाध्य युक्तिथी सिद्ध कर्या छे. आ अधिकार जिनशासनना स्तंभ समान छे. एनो ऊंडाणथी अभ्यास करनार मध्यस्थ सुपात्र जीवने ‘जैनदर्शन ज वस्तुदर्शन छे’ एम लाग्या विना रहेतुं नथी. विषयनुं प्रतिपादन एटलुं प्रौढ, अगाध ऊंडपवाळुं, मर्मस्पर्शी अने चमत्कृतिमय छे के ते मुमुक्षुना उपयोगने तीक्ष्ण बनावी श्रुतरत्नाकरना गंभीर ऊंडाणमां लई जाय छे, कोई उच्च कोटिना मुमुक्षुने निज स्वभावरत्ननी प्राप्ति करावे छे अने कोई सामान्य मुमुक्षु त्यां सुधी न पहोंची शके तो तेना हृदयमां पण ‘श्रुतरत्नाकर अद्भुत अने अपार छे’ एवो महिमा तो जरूर घर करी जाय छे. ग्रंथकार श्री कुंदकुंदाचार्यदेव अने टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेवना हृदयमांथी वहेली श्रुतगंगाए तीर्थंकरना अने श्रुतकेवळीओना विरहने भुलाव्या छे.

त्रीजा श्रुतस्कंधनुं नाम चरणानुयोगसूचक चूलिका छे. शुभोपयोगी मुनिने अंतरंग दशाने अनुरूप केवा प्रकारनो शुभोपयोग वर्ते छे अने साथे साथे सहजपणे बहारनी केवी क्रियाओ स्वयं वर्तती होय छे ते आमां जिनेन्द्रकथन अनुसार समजाववामां आव्युं छे. दीक्षा ग्रहण करवानी जिनोक्त विधि, अंतरंग सहजदशाने अनुरूप बहिरंग यथाजातरूपपणुं, २८ मूळगुण,