Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 72.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन
१२३

इन्द्रियसुखभाजनेषु हि प्रधाना दिवौकसः तेषामपि स्वाभाविकं न खलु सुखमस्ति, प्रत्युत तेषां स्वाभाविकं दुःखमेवावलोक्यते; यतस्ते पञ्चेन्द्रियात्मकशरीरपिशाचपीडया परवशा भृगुप्रपातस्थानीयान्मनोज्ञविषयानभिपतन्ति ।।७१।।

अथैवमिन्द्रियसुखस्य दुःखतायां युक्त्यावतारितायामिन्द्रियसुखसाधनीभूतपुण्यनिर्वर्तक- शुभोपयोगस्य दुःखसाधनीभूतपापनिर्वर्तकाशुभोपयोगविशेषादविशेषत्वमवतारयति णरणारयतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं

किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ।।७२।।
नरनारकतिर्यक्सुरा भजन्ति यदि देहसंभवं दुःखम्
कथं स शुभो वाऽशुभ उपयोगो भवति जीवानाम् ।।७२।।
लोभस्थानीयसर्पचतुष्कप्रसारितवदने देहस्थानीयमहान्धकूपे पतितः सन् कश्चित् पुरुषविशेषः, संसार-
स्थानीयमहारण्ये मिथ्यात्वादिकुमार्गे नष्टः सन् मृत्युस्थानीयहस्तिभयेनायुष्कर्मस्थानीये साटिकविशेषे

शुक्लकृष्णपक्षस्थानीयशुक्लकृष्णमूषकद्वयछेद्यमानमूले व्याधिस्थानीयमधुमक्षिकावेष्टिते लग्नस्तेनैव

टीकाःइन्द्रियसुखनां भाजनोमां प्रधान देवो छे; तेमने पण खरेखर स्वाभाविक सुख नथी; ऊलटुं तेमने स्वाभाविक दुःख ज जोवामां आवे छे; कारण के तेओ पंचेन्द्रियात्मक शरीररूप पिशाचनी पीडा वडे परवश होवाथी *भृगुप्रपात समा मनोज्ञ विषयो तरफ धसे छे. ७१.

ए रीते इन्द्रियसुखने दुःखपणे युक्तिथी प्रगट करीने, हवे इन्द्रियसुखना साधनभूत पुण्यने उत्पन्न करनार शुभोपयोगनुं, दुःखना साधनभूत पापने उत्पन्न करनार अशुभोपयोगथी अविशेषपणुं प्रगट करे छेः

तिर्यंच -नारक -सुर -नरो जो देहगत दुःख अनुभवे,
तो जीवनो उपयोग ए शुभ ने अशुभ कई रीत छे? ७२.

अन्वयार्थः[नरनारकतिर्यक्सुराः] मनुष्यो, नारको, तिर्यंचो अने देवो (बधांय) [यदि] जो [देहसंभवं] देहोत्पन्न [दुःखं] दुःखने [भजन्ति] अनुभवे छे, [जीवानां] तो जीवोनो [सः उपयोगः] ते (शुद्धोपयोगथी विलक्षणअशुद्ध) उपयोग [शुभः वा अशुभः] शुभ अने अशुभबे प्रकारनो [कथं भवति] कई रीते छे? (अर्थात् नथी.)

*भृगुप्रपात = अति दुःखथी कंटाळीने आपघात करवा माटे पर्वतना निराधार ऊंचा स्थान परथी
खावामां आवती पछाट. (भृगु = पर्वतनुं निराधार ऊंचुं स्थान
शिखर. प्रपात = पछाड; भूसको.)