शरीराकारगतिमार्गणाविलक्षणः सिद्धगतिपर्यायः तथाऽगुरुलघुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपाः साधारणस्वभाव- गुणपर्यायाश्च, तथा सर्वद्रव्येषु स्वभावद्रव्यपर्यायाः स्वजातीयविजातीयविभावद्रव्यपर्यायाश्च, तथैव स्वभावविभावगुणपर्यायाश्च ‘जेसिं अत्थि सहाओ’ इत्यादिगाथायां, तथैव ‘भावा जीवादीया’ इत्यादि- गाथायां च पञ्चास्तिकाये पूर्वं कथितक्रमेण यथासंभवं ज्ञातव्याः । पज्जयमूढा हि परसमया यस्मादित्थंभूत- (जीवो) पर्यायमात्रने ज अवलंबीने
तत्त्वनी अप्रतिपत्ति जेनुं लक्षण छे एवा मोहने पामता थका परसमय थाय छे.
भावार्थः — पदार्थ द्रव्यस्वरूप छे. द्रव्य अनंतगुणमय छे. द्रव्यो अने गुणोथी पर्यायो थाय छे. पर्यायो बे प्रकारना छेः (१) द्रव्यपर्याय; (२) गुणपर्याय. तेमां द्रव्यपर्यायो बे प्रकारना छेः (१) समानजातीय — जेम के द्वि -अणुक, त्रि -अणुक वगेरे स्कंध; (२) असमान- जातीय — जेम के मनुष्य, देव वगेरे. गुणपर्यायो पण बे प्रकारना छेः (१) स्वभावपर्याय — जेम के सिद्धना गुणपर्यायो; (२) विभावपर्याय — जेम के स्वपरहेतुक मतिज्ञानपर्याय.
आवुं जिनेंद्रभगवाननी वाणीए दर्शावेलुं सर्व पदार्थोनुं द्रव्य -गुण -पर्यायस्वरूप ज यथार्थ छे. जे जीवो द्रव्य -गुणने नहि जाणता थका केवळ पर्यायने ज अवलंबे छे तेओ निज स्वभावने नहि जाणता थका परसमय छे. ९३.
हवे *आनुषंगिक एवी आ ज स्वसमय -परसमयनी व्यवस्था (अर्थात् स्वसमय अने परसमयनो भेद) नक्की करीने (ते वातनो) उपसंहार करे छेः —
अन्वयार्थः — [ये जीवाः] जे जीवो [पर्यायेषु निरताः] पर्यायोमां लीन छे [परसमयिकाः इति निर्दिष्टाः] तेमने परसमय कहेवामां आव्या छे; [आत्मस्वभावे स्थिताः] जे जीवो आत्मस्वभावमां स्थित छे [ते] ते [स्वकसमयाः ज्ञातव्याः] स्वसमय जाणवा.
*आनुषंगिक = पूर्व गाथाना कथन साथे संबंधवाळी