Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्यायं सकलाविद्यानामेकमूलमुपगता यथोदितात्मस्वभावसंभावनक्लीबास्तस्मिन्नेवाशक्तिमुपव्रजन्ति, ते खलूच्छलितनिरर्गलैकान्त- दृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवैतन्मनुष्यशरीरमित्यहङ्कारममकाराभ्यां विप्रलभ्यमाना अविचलित- चेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात् प्रच्युत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रव्येण कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायन्ते ये तु पुनरसंकीर्ण- द्रव्यगुणपर्यायसुस्थितं भगवन्तमात्मनः स्वभावं सकलविद्यानामेकमूलमुपगम्य यथोदितात्म- द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानमूढा अथवा नारकादिपर्यायरूपो न भवाम्यहमिति भेदविज्ञानमूढाश्च परसमया मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति तस्मादियं पारमेश्वरी द्रव्यगुणपर्यायव्याख्या समीचीना भद्रा भवतीत्यभि- प्रायः ।।९३।। अथ प्रसंगायातां परसमयस्वसमयव्यवस्थां कथयतिजे पज्जएसु णिरदा जीवा ये पर्यायेषु

टीकाःजेओ जीवपुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्यायनोके जे सकळ अविद्याओनुं एक मूळ छे तेनोआश्रय करता थका यथोक्त आत्मस्वभावनी संभावना करवाने नपुंसक होवाथी तेमां ज बळ धारण करे छे (अर्थात् ते असमानजातीय द्रव्यपर्याय प्रत्ये ज जोरवाळा छे), तेओजेमने निरर्गळ एकांतद्रष्टि ऊछळे छे एवा‘आ हुं मनुष्य ज छुं, मारुं ज आ मनुष्यशरीर छे’ एम अहंकार -ममकार वडे ठगाता थका, अविचलितचेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहारथी च्युत थईने, जेमां समस्त क्रियाकलापने छाती -सरसो भेटवामां आवे छे एवा मनुष्यव्यवहारनो आश्रय करीने रागी अने द्वेषी थता थका परद्रव्यरूप कर्म साथे संगतपणाने लीधे (परद्रव्यरूप कर्म साथे जोडाता होवाने लीधे) खरेखर परसमय थाय छे अर्थात् परसमयरूपे परिणमे छे.

अने जेओ, असंकीर्ण द्रव्य -गुण -पर्यायो वडे सुस्थित एवा भगवान आत्माना स्वभावनोके जे सकळ विद्याओनुं एक मूळ छे तेनोआश्रय करीने यथोक्त आत्मस्वभावनी संभावनामां समर्थ होवाने लीधे पर्यायमात्र प्रत्येनुं बळ (जोर) दूर करीने

१६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

१.यथोक्त = (पूर्व गाथामां) जेवो कह्यो तेवो

२. संभावना = संचेतन; अनुभव; मान्यता; आदर.
३. निरर्गळ = अंकुश विनानी; बेहद. (जेओ मनुष्यादि पर्यायमां लीन छे, तेमने बेहद एकांतद्रष्टि
ऊछळे छे.)

४. अहंकार = ‘हुं’पणुं
५. ममकार = ‘मारा’पणुं
६. आत्मव्यवहार = आत्मारूप वर्तन; आत्मारूप कार्य; आत्मारूप व्यापार.
७. मनुष्यव्यवहार = मनुष्यरूप वर्तन (अर्थात्
‘हुं मनुष्य ज छुं’ एवी मान्यतापूर्वकनुं वर्तन)

८. जे जीव पर साथे एकपणानी मान्यतापूर्वक जोडाय तेने परसमय कहेवामां आवे छे.
९. असंकीर्ण = भेळसेळ नहि एवा; स्पष्टपणे भिन्न. [भगवान आत्मस्वभाव स्पष्ट -भिन्न (
पर साथे भेळसेळ नहि एवां) द्रव्य -गुण -पर्यायो वडे सुस्थित छे.]