न्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकधर्मित्वात् यथोदितानेकान्तात्मात्मद्रव्यम् ।
स्वात्मद्रव्यं शुद्धचिन्मात्रमन्तः ।।१९।।
इत्यभिहितमात्मद्रव्यमिदानीमेतदवाप्तिप्रकारोऽभिधीयते — अस्य तावदात्मनो नित्य- मेवानादिपौद्गलिककर्मनिमित्तमोहभावनानुभावघूर्णितात्मवृत्तितया तोयाकरस्येवात्मन्येव क्षुभ्यतः क्रमप्रवृत्ताभिरनन्ताभिर्ज्ञप्तिव्यक्तिभिः परिवर्तमानस्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासु परमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातरागाद्युपाधिरहितपरमानन्दैक- समवायात्मक (समुदायस्वरूप) एक समुद्रनी माफक, अनंत धर्मोने वस्तुपणे जुदा पाडवा अशक्य होवाथी आत्मद्रव्य +मेचकस्वभाववाळुं, अनंत धर्मोमां व्यापनारुं, एक धर्मी होवाने लीधे यथोक्त अनेकान्तात्मक (अनेकधर्मस्वरूप) छे. [जेम एक वखते एक नदीना जळने जाणनारा ज्ञानांश वडे जोवामां आवे तो समुद्र एक नदीना जळस्वरूप जणाय छे, तेम एक वखते एक धर्मने जाणनारा एक नयथी जोवामां आवे तो आत्मा एक धर्मस्वरूप जणाय छे; परंतु जेम एकीसाथे सर्व नदीओनां जळने जाणनारा ज्ञान वडे जोवामां आवे तो समुद्र सर्व नदीओनां जळस्वरूप जणाय छे, तेम एकीसाथे सर्व धर्मोने जाणनारा प्रमाण वडे जोवामां आवे तो आत्मा अनेक धर्मस्वरूप जणाय छे. आ रीते एक नयथी जोतां आत्मा एकांतात्मक छे अने प्रमाणथी जोतां अनेकांतात्मक छे.]
[हवे ए ज आशयने काव्य द्वारा कहीने ‘आत्मा केवो छे’ ए विषेनुं कथन पूरुं करवामां आवे छेः]
[अर्थः – ] आ रीते स्यात्कारश्रीना (स्यात्काररूपी लक्ष्मीना) वसवाटने वश वर्तता नयसमूहो वडे (जीवो) जुए तोपण अने प्रमाण वडे जुए तोपण स्पष्ट अनंत धर्मोवाळा निज आत्मद्रव्यने अंदरमां शुद्धचैतन्यमात्र देखे छे ज.
ए रीते आत्मद्रव्य कहेवामां आव्युं. हवे तेनी प्राप्तिनो प्रकार (रीत) कहेवामां आवे छेः प्रथम तो, अनादि पौद्गलिक कर्म जेनुं निमित्त छे एवी मोहभावनाना (मोहना अनुभवना) प्रभाव वडे आत्मपरिणति सदाय घूमरी खाती होवाथी आ आत्मा समुद्रनी माफक पोतामां ज क्षुब्ध थतो थको क्रमे प्रवर्तती अनंत ज्ञप्तिव्यक्तिओ वडे परिवर्तन पामे *शालिनी छंद + मेचक = जुदा जुदा; विधविध; अनेक.