Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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५०४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
भवति चात्र श्लोकः
आनन्दामृतपूरनिर्भरवहत्कैवल्यकल्लोलिनी-
निर्मग्नं जगदीक्षणक्षममहासंवेदनश्रीमुखम्
स्यात्काराङ्कजिनेशशासनवशादासादयन्तूल्लसत्
स्वं तत्त्वं वृतजात्यरत्नकिरणप्रस्पष्टमिष्टं जनाः ।।२०।।
व्याख्येयं किल विश्वमात्मसहितं व्याख्या तु गुम्फो गिरां
व्याख्यातामृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाज्जनो वल्गतु
वल्गत्वद्य विशुद्धबोधकलया स्याद्वादविद्याबलात्
लब्ध्वैकं सकलात्मशाश्वतमिदं स्वं तत्त्वमव्याकुलः ।।२१।।

इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्तौ एवं पूर्वोक्तक्रमेण ‘एस सुरासुर’ इत्याद्येकोत्तरशत- गाथापर्यन्तं सम्यग्ज्ञानाधिकारः, तदनन्तरं ‘तम्हा तस्स णमाइं’ इत्यादि त्रयोदशोत्तरशतगाथापर्यन्तं

अहीं श्लोक पण छेः
[अर्थः] आनंदामृतना पूरथी भरचक वहेती कैवल्यसरितामां (मुक्तिरूपी

सरितामां) जे डूबेलुं छे, जगतने जोवाने समर्थ एवी महासंवेदनरूपी श्री (महाज्ञानरूपी लक्ष्मी) जेमां मुख्य छे, उत्तम रत्नना किरण जेवुं जे स्पष्ट छे अने जे इष्ट छे एवा उल्लसता (प्रकाशमान, आनंदमय) स्वतत्त्वने जनो स्यात्कारलक्षण जिनेशशासनना वशे पामो (‘स्यात्कार’ जेनुं चिह्न छे एवा जिनभगवानना शासननो आश्रय करीने पामो).

[हवे, ‘अमृतचंद्रसूरि आ टीकाना रचनार छे’ एम मानवुं योग्य नथी एवा अर्थना काव्य द्वारा यथार्थ वस्तुस्वरूपने दर्शावी स्वतत्त्वप्राप्तिनी प्रेरणा करवामां आवे छेः]

[अर्थः] (खरेखर पुद्गलो ज स्वयं शब्दरूपे परिणमे छे, आत्मा तेमने परिणमावी शकतो नथी, तेम ज खरेखर सर्व पदार्थो ज स्वयं ज्ञेयपणेप्रमेयपणे परिणमे छे, शब्दो तेमने ज्ञेय बनावीसमजावी शकता नथी माटे) ‘आत्मा सहित विश्व ते व्याख्येय (समजाववायोग्य) छे, वाणीनी गूंथणी ते व्याख्या (समजूती) छे अने अमृतचंद्रसूरि ते व्याख्याता (व्याख्या करनार, समजावनार) छे’ एम मोहथी जनो न नाचो (न फुलाओ). (परंतु) स्याद्वादविद्याना बळथी विशुद्ध ज्ञाननी कळा वडे आ एक आखा शाश्वत स्व तत्त्वने प्राप्त करीने आजे (जनो) अव्याकुळपणे नाचो (परमानंदपरिणामे परिणमो).

[हवे काव्य द्वारा चैतन्यनो महिमा गाईने, ते ज एक अनुभववायोग्य छे एम प्रेरणा करीने, आ परम पवित्र परमागमनी पूर्णाहुति करवामां आवे छेः] *शार्दूलविक्रीडित छंद