प्रत्यक्षं न जानाति स पुरुषः प्रतिभासमयेन महासामान्येन ये व्याप्ता अनन्तज्ञानविशेषास्तेषां विषयभूताः येऽनन्तद्रव्यपर्यायास्तान् कथं जानाति, न कथमपि । अथ एतदायातम् — यः आत्मानं न
जानाति स सर्वं न जानातीति । तथा चोक्तम् --‘‘एको भावः सर्वभावस्वभावः सर्वे भावा
भावार्थ : — ४८ और ४९वीं गाथामें ऐसा बताया गया है कि सबको नहीं जानतावह अपनेको नहीं जानता, और जो अपनेको नहीं जानता वह सबको नहीं जानता । अपना ज्ञानऔर सबका ज्ञान एक साथ ही होता है । स्वयं और सर्व — इन दोमेंसे एकका ज्ञान हो औरदूसरेका न हो यह असम्भव है ।
यह कथन एकदेश ज्ञानकी अपेक्षासे नहीं किन्तु पूर्णज्ञानकी (केवलज्ञानकी) अपेक्षासेहै ।।४९।।
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि क्रमशः प्रवर्तमान ज्ञानकी सर्वगतता सिद्ध नहीं होती : —
अन्वयार्थ : — [यदि ] यदि [ज्ञानिनः ज्ञानं ] आत्माका ज्ञान [क्रमशः ] क्रमशः[अर्थान् प्रतीत्य ] पदार्थोंका अवलम्बन लेकर [उत्पद्यते ] उत्पन्न होता हो [तत् ] तो वह (ज्ञान) [ न एव नित्यं भवति ] नित्य नहीं है, [न क्षायिकं ] क्षायिक नहीं है, [न एव सर्वगतम् ] और सर्वगत नहीं है ।।५०।।
जो ज्ञान ‘ज्ञानी’नु ऊपजे क्रमशः अरथ अवलंबीने, तो नित्य नहि, क्षायिक नहि ने सर्वगत नहि ज्ञान ए .५०.