निबन्धनाः । अथ यः सर्वद्रव्यपर्यायनिबन्धनानंतविशेषव्यापिप्रतिभासमयमहासामान्यरूप-
मात्मानं स्वानुभवप्रत्यक्षं न करोति स क थं प्रतिभासमयमहासामान्यव्याप्यप्रतिभासमयानन्त-
विशेषनिबन्धनभूतसर्वद्रव्यपर्यायान् प्रत्यक्षीकुर्यात् । एवमेतदायाति य आत्मानं न जानाति स
सर्वं न जानाति । अथ सर्वज्ञानादात्मज्ञानमात्मज्ञानात्सर्वज्ञानमित्यवतिष्ठते । एवं च सति
ज्ञानमयत्वेन स्वसंचेतकत्वादात्मनो ज्ञातृज्ञेययोर्वस्तुत्वेनान्यत्वे सत्यपि प्रतिभासप्रतिभास्य-
मानयोः स्वस्यामवस्थायामन्योन्यसंवलनेनात्यन्तमशक्यविवेचनत्वात्सर्वमात्मनि निखातमिव
प्रतिभाति । यद्येवं न स्यात् तदा ज्ञानस्य परिपूर्णात्मसंचेतनाभावात् परिपूर्णस्यैकस्यात्मनोऽपि
ज्ञानं न सिद्धयेत् ।।४९।।
अनन्तद्रव्यसमूहान् किध सो सव्वाणि जाणादि कथं स सर्वान् जानाति जुगवं युगपदेकसमये, न
कथमपीति । तथा हि --आत्मलक्षणं तावज्ज्ञानं तच्चाखण्डप्रतिभासमयं सर्वजीवसाधारणं महासामान्यम् ।
तच्च महासामान्यं ज्ञानमयानन्तविशेषव्यापि । ते च ज्ञानविशेषा अनन्तद्रव्यपर्यायाणां विषयभूतानां
१. ज्ञान सामान्य व्यापक है, और ज्ञान विशेष -भेद व्याप्य हैं । उन ज्ञानविशेषोंके निमित्त ज्ञेयभूत सर्व द्रव्य
और पर्यायें हैं ।
२. निखात = खोदक र भीतर गहरा उतर गया हुवा; भीतर प्रविष्ट हुआ ।
८४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अनन्त विशेषोंमें व्याप्त होनेवाले प्रतिभासमय महासामान्यरूप आत्माका स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं
करता, वह (पुरुष) प्रतिभासमय महासामान्यके द्वारा १व्याप्य (-व्याप्य होने योग्य) जो
प्रतिभासमय अनन्त विशेष है उनकी निमित्तभूत सर्व द्रव्य पर्यायोंको कैसे प्रत्यक्ष कर
सकेगा ? (नहीं कर सकेगा) इससे ऐसा फलित हुआ कि जो आत्माको नहीं जानता वह
सबको नहीं जानता ।
अब, इससे ऐसा निश्चित होता है कि सर्वके ज्ञानसे आत्माका ज्ञान और आत्माके ज्ञानसे
सर्वका ज्ञान (होता है); और ऐसा होनेसे, आत्मा ज्ञानमयताके कारण स्वसंचेतक होनेसे, ज्ञाता
और ज्ञेयका वस्तुरूपसे अन्यत्व होने पर भी प्रतिभास और प्रतिभास्यमानकर अपनी अवस्थामें
अन्योन्य मिलन होनेके कारण (ज्ञान और ज्ञेय, आत्माकी – ज्ञानकी अवस्थामें परस्पर मिश्रित –
एकमेकरूप होनेसे) उन्हें भिन्न करना अत्यन्त अशक्य होनेसे मानो सब कुछ आत्मामें २निखात
(प्रविष्ट) हो गया हो इसप्रकार प्रतिभासित होता है — ज्ञात होता है । (आत्मा ज्ञानमय होनेसे
वह अपनेको अनुभव करता है — जानता है, और अपनेको जाननेपर समस्त ज्ञेय ऐसे ज्ञात
होते हैं – मानों वे ज्ञानमें स्थित ही हों, क्योंकि ज्ञानकी अवस्थामेंसे ज्ञेयाकारोंको भिन्न करना
अशक्य है ।) यदि ऐसा न हो तो (यदि आत्मा सबको न जानता हो तो) ज्ञानके परिपूर्ण
आत्मसंचेतनका अभाव होनेसे परिपूर्ण एक आत्माका भी ज्ञान सिद्ध न हो ।