आत्मा हि तावत्स्वयं ज्ञानमयत्वे सति ज्ञातृत्वात् ज्ञानमेव । ज्ञानं तु प्रत्यात्मवर्ति प्रतिभासमयं महासामान्यम् । तत्तु प्रतिभासमयानन्तविशेषव्यापि । ते च सर्वद्रव्यपर्याय- सकलाखण्डैककेवलज्ञानरूपमात्मानमपि न जानाति । तत एतत्स्थितं यः सर्वं न जानाति स आत्मानमपि न जानातीति ।।४८।। अथैकमजानन् सर्वं न जानातीति निश्चिनोति --दव्वं द्रव्यं अणंतपज्जयं अनन्तपर्यायं एगं एकं अणंताणि दव्वजादीणि अनन्तानि द्रव्यजातीनि जो ण विजाणदि यो न विजानाति
अन्वयार्थ : — [यदि ] यदि [अनन्तपर्यायं ] अनन्त पर्यायवाले [एकं द्रव्यं ] एक द्रव्यको (-आत्मद्रव्यको) [अनन्तानि द्रव्यजातानि ] तथा अनन्त द्रव्यसमूहको [युगपद् ] एक ही साथ [न विजानाति ] नहीं जानता [सः ] तो वह पुरुष [सर्वाणि ] सब को (-अनन्त द्रव्यसमूहको) [कथं जानाति ] कैसे जान सकेगा ? (अर्थात् जो आत्मद्रव्यको नहीं जानता हो वह समस्त द्रव्यसमूहको नहीं जान सकता) ।।४९।।
प्रकारान्तरसे अन्वयार्थ : — [यदि ] यदि [अनन्तपर्यायं ] अनन्त पर्यायवाले [एकं द्रव्यं ] एक द्रव्यको (-आत्मद्रव्यको) [न विजानाति ] नहीं जानता [सः ] तो वह पुरुष [युगपद् ] एक ही साथ [सर्वाणि अनन्तानि द्रव्यजातानि ] सर्व अनन्त द्रव्य -समूहको [कथं जानाति ] कैसे जान सकेगा ?
टीका : — प्रथम तो आत्मा वास्तवमें स्वयं ज्ञानमय होनेसे ज्ञातृत्वके कारण ज्ञान ही है; और ज्ञान प्रत्येक आत्मामें वर्तता (-रहता) हुआ प्रतिभासमय महासामान्य है । वह प्रतिभासमय महासामान्य प्रतिभासमय अनन्त विशेषोंमें व्याप्त होनेवाला है; और उन विशेषोंके (-भेदोंके) निमित्त सर्व द्रव्यपर्याय हैं । अब जो पुरुष सर्व द्रव्यपर्याय जिनके निमित्त हैं ऐसे
जो एक द्रव्य अनंतपर्यय तेम द्रव्य अनंतने युगपद न जाणे जीव, तो ते केम जाणे सर्वने ? ४९.