दाह्यमदहन् समस्तदाह्यहेतुकसमस्तदाह्याकारपर्यायपरिणतसकलैकदहनाकारमात्मानं दहन इव
समस्तज्ञेयहेतुकसमस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिणतसकलैकज्ञानाकारमात्मानं चेतनत्वात् स्वानुभव-
प्रत्यक्षत्वेऽपि न परिणमति । एवमेतदायाति यः सर्वं न जानाति स आत्मानं न जानाति ।।४८।।
ज्ञेयद्रव्यम् । किंविशिष्टम् । सपज्जयं अनन्तपर्यायसहितम् । कतिसंख्योपेतम् । एगं वा एकमपीति । तथा
हि ---आकाशद्रव्यं तावदेकं, धर्मद्रव्यमेकं, तथैवाधर्मद्रव्यं च, लोकाकाशप्रमितासंख्येयकालद्रव्याणि,
ततोऽनन्तगुणानि जीवद्रव्याणि, तेभ्योऽप्यनन्तगुणानि पुद्गलद्रव्याणि । तथैव सर्वेषां प्रत्येकमनन्त-
पर्यायाः, एतत्सर्वं ज्ञेयं तावत्तत्रैकं विवक्षितं जीवद्रव्यं ज्ञातृ भवति । एवं तावद्वस्तुस्वभावः । तत्र यथा
दहनः समस्तं दाह्यं दहन् सन् समस्तदाह्यहेतुकसमस्तदाह्याकारपर्यायपरिणतसकलैकदहनस्वरूपमुष्ण-
परिणततृणपर्णाद्याकारमात्मानं (स्वकीयस्वभावं) परिणमति, तथायमात्मा समस्तं ज्ञेयं जानन् सन्
समस्तज्ञेयहेतुकसमस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिणतसकलैकाखण्डज्ञानरूपं स्वकीयमात्मानं परिणमति जानाति
परिच्छिनत्ति । यथैव च स एव दहनः पूर्वोक्त लक्षणं दाह्यमदहन् सन् तदाकारेण न परिणमति,
तथाऽऽत्मापि पूर्वोक्तलक्षणं समस्तं ज्ञेयमजानन् पूर्वोक्तलक्षणमेव सकलैकाखण्डज्ञानाकारं
स्वकीयमात्मानं न परिणमति न जानाति न परिच्छिनत्ति । अपरमप्युदाहरणं दीयते ---यथा कोऽप्यन्धक
आदित्यप्रकाश्यान् पदार्थानपश्यन्नादित्यमिव, प्रदीपप्रकाश्यान् पदार्थानपश्यन् प्रदीपमिव, दर्पणस्थ-
बिम्बान्यपश्यन् दर्पणमिव, स्वकीयदृष्टिप्रकाश्यान् पदार्थानपश्यन् हस्तपादाद्यवयवपरिणतं स्वकीय-
देहाकारमात्मानं स्वकीयदृष्टया न पश्यति, तथायं विवक्षितात्मापि केवलज्ञानप्रकाश्यान् पदार्थानजानन्
८२प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
समस्तदाह्याकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन जिसका आकार है ऐसे अपने रूपमें
परिणमित नहीं होता उसीप्रकार समस्तज्ञेयहेतुक समस्तज्ञेयाकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक
ज्ञान जिसका आकार है ऐसे अपने रूपमें — स्वयं चेतनाके कारण स्वानुभवप्रत्यक्ष होने पर भी
परिणमित नहीं होता, (अपनेको परिपूर्ण तया अनुभव नहीं करता — नहीं जानता) इस प्रकार
यह फलित होता है कि जो सबको नहीं जानता वह अपनेको (-आत्माको) नहीं जानता ।
भावार्थ : — जो अग्नि काष्ठ, तृण, पत्ते इत्यादि समस्त दाह्यपदार्थोंको नहीं जलाता,
उसका दहनस्वभाव (काष्ठादिक समस्त दाह्य जिसका निमित्त है ऐसा) समस्त
दाह्याकारपर्यायरूप परिणमित न होनेसे अपूर्णरूपसे परिणमित होता है — परिपूर्णरूपसे परिणमित
नहीं होता, इसलिये परिपूर्ण एक दहन जिसका स्वरूप है ऐसी वह अग्नि अपने रूप ही पूर्ण
रीतिसे परिणमित नहीं होती; उसी प्रकार यह आत्मा समस्त द्रव्य -पर्यायरूप समस्त ज्ञेयको नहीं
जानता, उसका ज्ञान (समस्त ज्ञेय जिसका निमित्त है ऐसे) समस्तज्ञेयाकारपर्यायरूप परिणमित
न होनेसे अपूर्णरूपसे परिणमित होता है – परिपूर्ण रूपसे परिणमित नहीं होता, इसलिये परिपूर्ण
एक ज्ञान जिसका स्वरूप है ऐसा वह आत्मा अपने रूपसे ही पूर्ण रीतिसे परिणमित नहीं होता
अर्थात् निजको ही पूर्ण रीतिसे अनुभव नहीं करता — नहीं जानता । इसप्रकार सिद्ध हुआ कि
जो सबको नहीं जानता वह एकको — अपनेको (पूर्ण रीतिसे) नहीं जानता ।।४८।।