इह किलैकमाकाशद्रव्यमेकं धर्मद्रव्यमेकमधर्मद्रव्यमसंख्येयानि कालद्रव्याण्यनन्तानि
जीवद्रव्याणि । ततोऽप्यनन्तगुणानि पुद्गलद्रव्याणि । तथैषामेव प्रत्येकमतीतानागतानुभूय-
मानभेदभिन्ननिरवधिवृत्तिप्रवाहपरिपातिनोऽनन्ताः पर्यायाः । एवमेतत्समस्तमपि समुदितं ज्ञेयम् ।
इहैवैकं किंचिज्जीवद्रव्यं ज्ञातृ । अथ यथा समस्तं दाह्यं दहन् दहनः समस्तदाह्यहेतुक-
समस्तदाह्याकारपर्यायपरिणतसकलैकदहनाकारमात्मानं परिणमति, तथा समस्तं ज्ञेयं जानन्
ज्ञाता समस्तज्ञेयहेतुकसमस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिणतसकलैकज्ञानाकारं चेतनत्वात् स्वानुभव-
प्रत्यक्षमात्मानं परिणमति । एवं किल द्रव्यस्वभावः । यस्तु समस्तं ज्ञेयं न जानाति स समस्तं
भणितम् । अभेदनयेन तदेव सर्वज्ञस्वरूपं तदेवोपादेयभूतानन्तसुखाद्यनन्तगुणानामाधारभूतं सर्व-
प्रकारोपादेयरूपेण भावनीयम् इति तात्पर्यम् ।।४७।। अथ यः सर्वं न जानाति स एकमपि न
जानातीति विचारयति — जो ण विजाणदि यः कर्ता नैव जानाति । कथम् । जुगवं युगपदेकक्षणे । कान् ।
अत्थे अर्थान् । कथंभूतान् । तिक्कालिगे त्रिकालपर्यायपरिणतान् । पुनरपि कथंभूतान् । तिहुवणत्थे
त्रिभुवनस्थान् । णादुं तस्स ण सक्कं तस्य पुरुषस्य सम्बन्धि ज्ञानं ज्ञातुं समर्थं न भवति । किम् । दव्वं
१. निरवधि = अवधि – हद – मर्यादा अन्तरहित ।
२. वृत्ति = वर्तन करना; उत्पाद – व्यय – ध्रौव्य; अस्तित्व, परिणति ।
३. दहन = जलाना, दहना ।
४. सकल = सारा; परिपूर्ण ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
८१
प्र. ११
विजानाति ] नहीं जानता, [तस्य ] उसे [सपर्ययं ] पर्याय सहित [एकं द्रव्यं वा ] एक द्रव्य
भी [ज्ञातुं न शक्यं ] जानना शक्य नहीं है ।।४८।।
टीका : — इस विश्वमें एक आकाशद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, असंख्य
कालद्रव्य और अनन्त जीवद्रव्य तथा उनसे भी अनन्तगुने पुद्गल द्रव्य हैं, और उन्हींके
प्रत्येकके अतीत, अनागत और वर्तमान ऐसे (तीन) प्रकारोंसे भेदवाली १निरवधि २वृत्तिप्रवाहके
भीतर पड़नेवाली (-समा जानेवाली) अनन्त पर्यायें हैं । इसप्रकार यह समस्त (द्रव्यों और
पर्यायोंका) समुदाय ज्ञेय है । उसीमें एक कोई भी जीवद्रव्य ज्ञाता है । अब यहाँ, जैसे समस्त
दाह्यको दहकती हुई अग्नि समस्त -दाह्यहेतुक (-समस्त दाह्य जिसका निमित्त है ऐसा) समस्त
दाह्याकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक ३दहन जिसका आकार (स्वरूप) है ऐसे अपने
रूपमें (-अग्निरूपमें ) परिणमित होती है, वैसे ही समस्त ज्ञेयोको जानता हुआ ज्ञाता
(-आत्मा) समस्तज्ञेयहेतुक समस्त ज्ञेयाकारपर्यायरूप परिणमित ४सकल एक ज्ञान जिसका
आकार (स्वरूप) है ऐसे निजरूपसे — जो चेतनताके कारण स्वानुभवप्रत्यक्ष है उस -रूप —
परिणमित होता है । इसप्रकार वास्तवमें द्रव्यका स्वभाव है । किन्तु जो समस्त ज्ञेयको नहीं
जानता वह (आत्मा), जैसे समस्त दाह्यको न दहती हुई अग्नि समस्तदाह्यहेतुक