क्षयोपशमस्य विनाशनाद्विषममपि प्रकाशेत । अलमथवातिविस्तरेण, अनिवारितप्रसरप्रकाश-
शालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ।।४७।।
अथ सर्वमजानन्नेकमपि न जानातीति निश्चिनोति —
जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे ।
णादुं तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा ।।४८।।
यो न विजानाति युगपदर्थान् त्रैकालिकान् त्रिभुवनस्थान् ।
ज्ञातुं तस्य न शक्यं सपर्ययं द्रव्यमेकं वा ।।४८।।
पदार्थमिति विशेष्यपदम् । किंविशिष्टम् । तक्कालियमिदरं तात्कालिकं वर्तमानमितरं चातीतानागतम् । कथं
जानाति । जुगवं युगपदेकसमये समंतदो समन्ततः सर्वात्मप्रदेशैः सर्वप्रकारेण वा । कतिसंख्योपेतम् । सव्वं
समस्तम् । पुनरपि किंविशिष्टम् । विचित्तं नानाभेदभिन्नम् । पुनरपि किंरूपम् । विसमं
मूर्तामूर्तचेतनाचेतनादिजात्यन्तरविशेषैर्विसद्दशं । तं णाणं खाइयं भणियं यदेवंगुणविशिष्टं ज्ञानं तत्क्षायिकं
८०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
क्षयके कारण (-असमानजातिके पदार्थोंको जाननेवाले ज्ञानके आवरणमें निमित्तभूत कर्मोंके
क्षयके कारण) समानजातीय ज्ञानावरणका क्षयोपशम (-समान जातिके ही पदार्थोंको
जाननेवाले ज्ञानके आवरणमें निमित्तभूत कर्मोंका क्षयोपशम) नष्ट हो जानेसे वह विषम को भी
(-असमानजातिके पदार्थोंको भी) प्रकाशित करता है । अथवा, अतिविस्तारसे पूरा पडे़ (कुछ
लाभ नहीं) ? जिसका अनिवार (रोका न जा सके ऐसा अमर्यादित) फै लाव है ऐसा प्रकाशमान
होनेसे क्षायिक ज्ञान अवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वको जानता है ।
भावार्थ : — क्रमपूर्वक जानना, नियत आत्मप्रदेशोंसे ही जानना, अमुकको ही
— इत्यादि मर्यादायें मति – श्रुतादि क्षायोपशमिक ज्ञानमें ही संभव हैं । क्षायिकज्ञानके
अमर्यादित होनेसे एक ही साथ सर्व आत्मप्रदेशोंसे तीनों कालकी पर्यायोंके साथ सर्व पदार्थोंको —
उन पदार्थोंके अनेक प्रकारके और विरुद्ध जातिके होने पर भी जानता है अर्थात् केवलज्ञान एक
ही समयमें सर्व आत्मप्रदेशोंसे समस्त द्रव्य -क्षेत्र -काल -भावको जानता है ।।४७।।
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि जो सबको नहीं जानता वह एकको भी नहीं जानता : —
अन्वयार्थ : — [य ] जो [युगपद् ] एक ही साथ [त्रैकालिकान् त्रिभुवनस्थान् ]
त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ (-तीनों कालके और तीनों लोकके) [अर्थान् ] पदार्थोंको [न
जाणे नहि युगपद त्रिकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थ ने,
तेने सपर्यय एक पण नहि द्रव्य जाणवुं शक्य छे .४८.