Pravachansar (Hindi). Sukh adhikar Gatha: 53.

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९०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(स्रग्धरा)
जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं
मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा
तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीत-
ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः
।।४।।
इति ज्ञानाधिकारः

अथ ज्ञानादभिन्नस्य सौख्यस्य स्वरूपं प्रपंचयन् ज्ञानसौख्ययोः हेयोपादेयत्वं चिन्तयति

अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिंदियं इंदियं च अत्थेसु
णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ।।५३।।

विज्ञानानि त्यक्त्वा सकलविमलकेवलज्ञानस्य कर्मबन्धाकारणभूतस्य यद्बीजभूतं निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानं तत्रैव भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः ।।५२।। एवं रागद्वेषमोहरहितत्वात्केवलिनां बन्धो नास्तीति कथनरूपेण ज्ञानप्रपञ्चसमाप्तिमुख्यत्वेन चैकसूत्रेणाष्टमस्थलं गतम् सन्मुख वृत्ति होना (-ज्ञेय पदार्थोंके प्रति परिणमित होना) वह बन्धका कारण है ।।५२।।

(अब, पूर्वोक्त आशयको काव्यद्वारा कहकर, केवलज्ञानी आत्माकी महिमा बताकर यह ज्ञान -अधिकार पूर्ण किया जाता है )

अर्थ :जिसने कर्मोंको छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, भविष्यत और वर्तमान समस्त विश्वको (अर्थात् तीनों कालकी पर्यायोंसे युक्त समस्त पदार्थोंको) एक ही साथ जानता हुआ भी मोहके अभावके कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिये अब, जिसके समस्त ज्ञेयाकारोंको अत्यन्त विकसित ज्ञप्तिके विस्तारसे स्वयं पी गया है ऐसै तीनोंलोकके पदार्थोंको पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है

इस प्रकार ज्ञानअधिकार समाप्त हुआ
अब, ज्ञानसे अभिन्न सुखका स्वरूप विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए ज्ञान और सुखकी

हेयोपादेयताका (अर्थात् कौनसा ज्ञान तथा सुख हेय है और कौनसा उपादेय है वह) विचार करते हैं :

अर्थोनुं ज्ञान अमूर्त, मूर्त, अतीन्द्रिय ने ऐन्द्रिय छे, छे सुख पण एवुंज, त्यां परधान जे ते ग्राह्य छे. ५३.