स्वरूप क्रियाके साथ युक्त होता हुआ आत्मा क्रियाफलभूत बन्धका अनुभव करता है, किन्तु ज्ञानसे नहीं’ इसप्रकार प्रथम ही अर्थपरिणमनक्रियाके फलरूपसे बन्धका समर्थन किया गया है (अर्थात् बन्ध तो पदार्थरूपमें परिणमनरूप क्रियाका फल है ऐसा निश्चित किया गया है) तथा ‘गेण्हदि णेव ण मुञ्चदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणादि
सव्वं १णिरवसेसं ।।’
इस गाथा सूत्रमें शुद्धात्माके अर्थ परिणमनादि क्रियाओंका अभाव निरूपित किया गयाहै इसलिये जो (आत्मा) पदार्थरूपमें परिणमित नहीं होता उसे ग्रहाण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता उस आत्माके ज्ञप्तिक्रियाका सद्भाव होने पर भी वास्तवमें क्रियाफलभूत बन्ध सिद्ध नहीं होता ।
भावार्थ : — कर्मके तीन भेद किये गये हैं – प्राप्य – विकार्य और निर्वर्त्य । केवली-भगवानके प्राप्य कर्म, विकार्य कर्म और निर्वर्त्य कर्म ज्ञान ही है, क्योंकि वे ज्ञानको ही ग्रहण करते हैं, ज्ञानरूप ही परिणमित होते हैं और ज्ञानरूप ही उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार ज्ञान हीउनका कर्म और ज्ञप्ति ही उनकी क्रिया है । ऐसा होनेसे केवलीभगवानके बन्ध नहीं होता,क्योंकि ज्ञप्तिक्रिया बन्धका कारण नहीं है किन्तु ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया अर्थात् ज्ञेय पदार्थोंके१. ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापनकी ३२ वीं गाथा ।प्र. १२