श्री गुणधर आचार्यको ज्ञानप्रवादपूर्वकी दशम वस्तुअधिकारके तृतीय प्राभृतका
ज्ञान था। उस ज्ञानमेंसे बादके आचार्योंने क्रमशः सिद्धान्त -रचना की। इसप्रकार सर्वज्ञ
भगवान् महावीरसे चला आनेवाला ज्ञान आचार्यपरम्परासे भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवको
प्राप्त हुआ। उन्होंने पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि
शास्त्रोंकी रचना की। इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई। उसमें ज्ञानको प्रधान
करके शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे कथन है, आत्माके शुद्धस्वरूपका वर्णन है।
भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव विक्रम संवत्के प्रारम्भमें हो गये हैं। दिगम्बर जैन
परम्परामें भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवका स्थान सर्वोत्कृष्ट है।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।
— यह श्लोक प्रत्येक दिगम्बर जैन, शास्त्रस्वाध्यायके प्रारम्भमें मंगलाचरणके
रूपमें बोलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सर्वज्ञ भगवान् श्री महावीरस्वामी और
गणधर भगवान श्री गौतमस्वामीके पश्चात् तुरत ही भगवान कुन्दकुन्दाचार्यका स्थान
आता है। दिगम्बर जैन साधु अपनेको कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्पराका कहलानेमें गौरव
मानते हैं। भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात् गणधरदेवके वचन जितने ही
प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके बाद होनेवाले ग्रन्थकार आचार्य अपने किसी कथनको
सिद्ध करनेके लिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं जिससे यह कथन
निर्विवाद सिद्ध हो जाता है। उनके बाद लिखे गये ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रोंमेंसे अनेकानेक
बहुतसे अवतरण लिये गए हैं। वास्तवमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने अपने परमागमोंमें
तीर्थंकरदेवोंके द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम सिद्धांतोंको सुरक्षित कर रखा है, और मोक्षमार्गको
स्थिर रखा है। विक्रम संवत् ६६०में होनेवाले श्री देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार
नामके ग्रन्थमें कहते हैं कि —
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।।
‘‘विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधरस्वामीके समवसरणमें जाकर श्री
पद्मनंदिनाथने (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) स्वयं प्राप्त किये गए ज्ञानके द्वारा बोध न दिया
होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?’’ एक दूसरा उल्लेख देखिये, जिसमें
कुन्दकुन्दाचार्यदेवको ‘कलिकालसर्वज्ञ’ कहा गया है। षट्प्राभृतकी श्री श्रुतसागरसूरिकृत
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