खेदनिदानतां प्रतिपद्यन्ते । तदभावात्कुतो हि नाम केवले खेदस्योद्भेदः । यतश्च त्रिसमया-
स्वयमेव परिणमत् केवलमेव परिणामः, ततः कुतोऽन्यः परिणामो यद्द्वारेण खेदस्यात्म-
लाभः । यतश्च समस्तस्वभावप्रतिघाताभावात्समुल्लसितनिरंकु शानन्तशक्तितया सकलं
केवलज्ञानस्य खेदो नास्तीति सुखमेव । तथैव तस्य भगवतो जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तपदार्थ-
(१) खेदके आयतन (-स्थान) घातिकर्म हैं, केवल परिणाममात्र नहीं । घातिकर्म महा मोहके उत्पादक होनेसे धतूरेकी भाँति १अतत्में तत् बुद्धि धारण करवाकर आत्माको ज्ञेयपदार्थके प्रति परिणमन कराते हैं; इसलिये वे घातिकर्म, प्रत्येक पदार्थके प्रति परिणमित हो- होकर थकनेवाले आत्माके लिये खेदके कारण होते हैं । उनका (घातिकर्मोंका) अभाव होनेसे केवलज्ञानमें खेद कहाँसे प्रगट होगा ? (२) और तीनकालरूप तीन भेद जिसमें किये जाते हैं ऐसे समस्त पदार्थोंकी ज्ञेयाकाररूप (विविधताको प्रकाशित करनेका स्थानभूत केवलज्ञान, चित्रित् दीवारकी भाँति, स्वयं) ही अनन्तस्वरूप स्वयमेव परिणमित होनेसे केवलज्ञान ही परिणाम है । इसलिये अन्य परिणाम कहाँ हैं कि जिनसे खेदकी उत्पत्ति हो ? (३) और, केवलज्ञान समस्त स्वभावप्रतिघातके२ अभावके कारण निरंकुश अनन्त शक्तिके उल्लसित होनेसे समस्त त्रैकालिक लोकालोकके -आकारमें व्याप्त होकर ३कूटस्थतया अत्यन्त निष्कंप है, १. अतत्में तत्बुद्धि = वस्तु जिसस्वरूप नहीं है उस स्वरूप होनेकी मान्यता; जैसे कि — जड़में चेतनबुद्धि
(अर्थात् जड़में चेतनकी मान्यता) दुःखमें सुखबुद्धि वगैरह । २. प्रतिघात = विघ्न; रुकावट; हनन; घात । ३. कूटस्थ = सदा एकरूप रहनेवाला; अचल (केवलज्ञान सर्वथा अपरिणामी नहीं है, किन्तु वह एक ज्ञेयसे
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