Pravachansar (Hindi).

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इह खलु स्वभावप्रतिघातादाकुलत्वाच्च मोहनीयादिकर्मजालशालिनां सुखाभासे-
ऽप्यपारमार्थिकी सुखमिति रूढिः केवलिनां तु भगवतां प्रक्षीणघातिकर्मणां स्वभाव-
प्रतिघाताभावादनाकुलत्वाच्च यथोदितस्य हेतोर्लक्षणस्य च सद्भावात्पारमार्थिकं सुखमिति
श्रद्धेयम्
न किलैवं येषां श्रद्धानमस्ति ते खलु मोक्षसुखसुधापानदूरवर्तिनो मृगतृष्णाम्भो-
भारमेवाभव्याः पश्यन्ति ये पुनरिदमिदानीमेव वचः प्रतीच्छन्ति ते शिवश्रियो भाजनं
समासन्नभव्याः भवन्ति ये तु पुरा प्रतीच्छन्ति ते तु दूरभव्या इति ।।६२।।
सम्यक्त्वरूपभव्यत्वव्यक्त्यभावादभव्या भण्यन्ते, न पुनः सर्वथा भव्वा वा तं पडिच्छंति ये वर्तमानकाले
सम्यक्त्वरूपभव्यत्वव्यक्तिपरिणतास्तिष्ठन्ति ते तदनन्तसुखमिदानीं मन्यन्ते ये च सम्यक्त्वरूप-
भव्यत्वव्यक्त्या भाविकाले परिणमिष्यन्ति ते च दूरभव्या अग्रे श्रद्धानं कुर्युरिति अयमत्रार्थः
मारणार्थं तलवरगृहीततस्करस्य मरणमिव यद्यपीन्द्रियसुखमिष्टं न भवति, तथापि तलवरस्थानीय-
चारित्रमोहोदयेन मोहितः सन्निरुपरागस्वात्मोत्थसुखमलभमानः सन् सरागसम्यग्दृष्टिरात्मनिन्दादिपरिणतो

हेयरूपेण तदनुभवति
ये पुनर्वीतरागसम्यग्दृष्टयः शुद्धोपयोगिनस्तेषां, मत्स्यानां स्थलगमनमिवा-
ग्निप्रवेश इव वा, निर्विकारशुद्धात्मसुखाच्च्यवनमपि दुःखं प्रतिभाति तथा चोक्तम्
१. सुखका कारण स्वभाव प्रतिघातका अभाव है
२. सुखका लक्षण अनाकुलता है
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
१०९
टीका :इस लोकमें मोहनीयआदिकर्मजालवालोंके स्वभावप्रतिघातके कारण और
आकुलताके कारण सुखाभास होने पर भी उस सुखाभासको ‘सुख’ कहनेकी
अपारमार्थिक रूढ़ि है; और जिनके घातिकर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे केवलीभगवानके,
स्वभावप्रतिघातके अभावके कारण और आकुलताके कारण सुखके यथोक्त
कारणका और
लक्षणका सद्भाव होनेसे पारमार्थिक सुख हैऐसी श्रद्धा करने योग्य है जिन्हें ऐसी
श्रद्धा नहीं है वेमोक्षसुखके सुधापानसे दूर रहनेवाले अभव्यमृगतृष्णाके जलसमूहको ही
देखते (-अनुभव करते) हैं; और जो उस वचनको इसीसमय स्वीकार(-श्रद्धा) करते हैं वे
शिवश्रीके (-मोक्षलक्ष्मीके) भाजनआसन्नभव्य हैं, और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे
दूरभव्य हैं
भावार्थ :‘केवलीभगवानके ही पारमार्थिक सुख है’ ऐसा वचन सुनकर जो कभी
इसका स्वीकारआदरश्रद्धा नहीं करते वे कभी मोक्ष प्राप्त नहीं करते; जो उपरोक्त वचन
सुनकर अंतरंगसे उसकी श्रद्धा करते हैं वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं जो वर्तमानमें श्रद्धा करते
हैं वे आसन्नभव्य हैं और जो भविष्यमें श्रद्धा करेंगे वे दूरभव्य हैं ।।६२।।