पूर्वोक्तगाथात्रयकथितप्रकारेण श्रुत्वापि ।ते अभव्वा ते अभव्याः । ते हि जीवा वर्तमानकाले
(प्रकारान्तरसे केवलज्ञानकी सुखस्वरूपता बतलाते हैं : — ) और, केवल अर्थात्केवलज्ञान सुख ही है, क्योंकि सर्व अनिष्टोंका नाश हो चुका है और सम्पूर्ण इष्टकी प्राप्ति हो चुकी है । केवल -अवस्थामें, सुखोपलब्धिके विपक्षभूत दुःखोंके साधनभूत अज्ञानकासम्पूर्णतया नाश हो जाता है और सुखका साधनभूत परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिये केवल ही सुख है । अधिक विस्तारसे बस हो ।।६१।।
अब, ऐसी श्रद्धा कराते हैं कि केवलज्ञानियोंको ही पारमार्थिक सुख होता है : —
अन्वयार्थ : — ‘[विगतघातिनां ] जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं उनका [सौख्यं ]सुख [सुखेषु परमं ] (सर्व) सुखोंमें परम अर्थात् उत्कृष्ट है’ [इति श्रुत्वा ] ऐसा वचन सुनकर [न श्रद्दधति ] जो श्रद्धा नहीं करते [ते अभव्याः ] वे अभव्य हैं; [भव्याः वा ] और भव्य [तत् ] उसे [प्रतीच्छन्ति ] स्वीकार (-आदर) करते हैं – उसकी श्रद्धा करते हैं ।।६२।।
सुणी ‘घातिकर्मविहीननुं सुख सौ सुखे उत्कृष्ट छे’, श्रद्धे न तेह अभव्य छे, ने भव्य ते संमत करे. ६२.