इन्द्रियसुखभाजनेषु हि प्रधाना दिवौकसः । तेषामपि स्वाभाविकं न खलु सुखमस्ति,
प्रत्युत तेषां स्वाभाविकं दुःखमेवावलोक्यते, यतस्ते पंचेन्द्रियात्मकशरीरपिशाचपीडया परवशा
भृगुप्रपातस्थानीयान् मनोज्ञविषयानभिपतन्ति ।।७१।।
अथैवमिन्द्रियसुखस्य दुःखतायां युक्त्यावतारितायामिन्द्रियसुखसाधनीभूतपुण्यनिर्वर्तक-
शुभोपयोगस्य दुःखसाधनीभूतपापनिर्वर्तकाशुभोपयोगविशेषादविशेषत्वमवतारयति —
णरणारयतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं ।
किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ।।७२।।
नरनारकतिर्यक्सुरा भजन्ति यदि देहसंभवं दुःखम् ।
कथं स शुभो वाऽशुभ उपयोगो भवति जीवानाम् ।।७२।।
लोभस्थानीयसर्पचतुष्कप्रसारितवदने देहस्थानीयमहान्धकूपे पतितः सन् कश्चित् पुरुषविशेषः, संसार-
स्थानीयमहारण्ये मिथ्यात्वादिकुमार्गे नष्टः सन् मृत्युस्थानीयहस्तिभयेनायुष्कर्मस्थानीये साटिकविशेषे
शुक्लकृष्णपक्षस्थानीयशुक्लकृष्णमूषकद्वयछेद्यमानमूले व्याधिस्थानीयमधुमक्षिकावेष्टिते लग्नस्तेनैव
१. भृगुप्रपात = अत्यंत दुःखसे घबराकर आत्मघात करनेके लिये पर्वतके निराधार उच्च शिखरसे गिरना ।
(भृगु = पर्वतका निराधार उच्चस्थान – शिखर; प्रपात = गिरना)
तिर्यंच -नारक -सुर -नरो जो देहगत दुःख अनुभवे,
तो जीवनो उपयोग ए शुभ ने अशुभ कई रीत छे ?. ७२.
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
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टीका : — इन्द्रियसुखके भाजनोंमें प्रधान देव हैं; उनके भी वास्तवमें स्वाभाविक सुख
नहीं है, उलटा उनके स्वाभाविक दुःख ही देखा जाता है; क्योंकि वे पंचेन्द्रियात्मक शरीररूपी
पिशाचकी पीड़ासे परवश होनेसे १भृगुप्रपातके समान मनोज्ञ विषयोंकी ओर दौंड़ते है ।।७१।।
इसप्रकार युक्तिपूर्वक इन्द्रियसुखको दुःखरूप प्रगट करके, अब इन्द्रियसुखके
साधनभूत पुण्यको उत्पन्न करनेवाले शुभोपयोगकी, दुःखके साधनभूत पापको उत्पन्न करनेवाले
अशुभोपयोगसे अविशेषता प्रगट करते हैं : —
अन्वयार्थ : – [नरनारकतिर्यक्सुराः ] मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव ( – सभी)
[यदि ] यदि [देहसंभवं ] देहोत्पन्न [दुःखं ] दुःखको [भजंति ] अनुभव करते हैं, [जीवानां ]
तो जीवोंका [सः उपयोगः ] वह (शुद्धोपयोगसे विलक्षण -अशुद्ध) उपयोग [शुभः वा
अशुभः ] शुभ और अशुभ — दो प्रकारका [कथं भवति ] कैसे है ? (अर्थात् नहीं है )।।७२।।