समझाया गया है । उसमें द्रव्यसामान्यका स्वरूप जिस अलौकिक शैलीसे सिद्ध किया है
उसका ध्यान पाठकोंको यह भाग स्वयं ही समझपूर्वक पढ़े बिना आना अशक्य है ।
वास्तवमें प्रवचनसारमें वर्णित यह द्रव्यसामान्य निरूपण अत्यन्त अबाध्य और परम
प्रतीतिकर है । इस प्रकार द्रव्यसामान्यकी ज्ञानरूपी सुदृढ़ भूमिका रचकर, द्रव्य विशेषका
असाधारण वर्णन, प्राणादिसे जीवकी भिन्नता, जीव देहादिका – कर्ता, कारयिता, अनुमोदक नहीं
है – यह वास्तविकता, जीवको पुद्गलपिण्डका अकर्तृत्व, निश्चयबंधका स्वरूप, शुद्धात्माकी
उपलब्धिका फल, एकाग्र संचेतनलक्षण ध्यान इत्यादि अनेक विषय अति स्पष्टतया समझाए
गए हैं । इन सबमें स्व – परका भेदविज्ञान ही स्पष्ट तैरता दिखाई दे रहा है । सम्पूर्ण अधिकार
में वीतराग प्रणीत द्रव्यानुयोगका सत्त्व खूब ठूंस ठूंस कर भरा है, जिनशासनके मौलिक
सिद्धान्तोंको अबाध्ययुक्तिसे सिद्ध किया है । यह अधिकार जिनशासनके स्तम्भ समान है ।
इसका गहराईसे अभ्यास करनेवाले मध्यस्थ सुपात्र जीवको ऐसी प्रतीति हुये बिना नहीं रहती
कि ‘जैन दर्शन ही वस्तुदर्शन है’ । विषयका प्रतिपादन इतना प्रौढ़, अगाध गहराईयुक्त, मर्मस्पर्शी
और चमत्कृतिमय है कि वह मुमुक्षुके उपयोगको तीक्ष्ण बनाकर श्रुतरत्नाकरकी गम्भीर गहराईमें
ले जाता है । किसी उच्चकोटिके मुमुक्षुको निजस्वभावरत्नकी प्राप्ति कराता है, और यदि कोई
सामान्य मुमुक्षु वहाँ तक न पहुँच सके तो उसके हृदयमें भी इतनी महिमा तो अवश्य ही घर
कर लेती है कि ‘श्रुतरत्नाकर अद्भुत और अपार है’ । ग्रन्थकार श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव और
टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवके हृदयसे प्रवाहित श्रुतगंगाने तीर्थंकरके और श्रुतकेवलियोंके
विरहको भुला दिया है ।
तीसरे श्रुतस्कन्धका नाम ‘चरणानुयोगसूचक चूलिका’ है । शुभोपयोगी मुनिको अंतरंग
दशाके अनुरूप किस प्रकारका शुभोपयोग वर्तता है और साथ ही साथ सहजतया बाहरकी
कैसी क्रियामें स्वयं वर्तना होती हैं, वह इसमें जिनेन्द्र कथनानुसार समझाया गया है । दीक्षा
ग्रहण करनेकी जिनोक्त विधि, अंतरंग सहज दशाके अनुरूप बहिरंगयथाजात -रूपत्व, अट्ठाईस
मूलगुण, अंतरंग – बहिरंग छेद, उपधिनिषेध, उत्सर्ग – अपवाद, युक्ताहार विहार, एकाग्रतारूप
मोक्षमार्ग, मुनिका अन्य मुनियोंके प्रतिका व्यवहार आदि अनेक विषय इसमें युक्ति सहित
समझाये गये हैं । ग्रंथकार और टीकाकार आचार्ययुगलने चरणानुयोग जैसे विषयको भी
आत्मद्रव्यको मुख्य करके शुद्धद्रव्यावलम्बी अंतरंग दशाके साथ उन – उन क्रियाओंका या
शुभभावोंका संबंध दर्शाते हुए निश्चय – व्यवहारकी संधिपूर्वक ऐसा चमत्कारपूर्ण वर्णन किया
है कि आचरणप्रज्ञापन जैसे अधिकारमें भी जैसे कोई शांतझरनेसे झरता हुआ अध्यात्मगीत गाया
जा रहा हो, — ऐसा ही लगता रहता है । आत्मद्रव्यको मुख्य करके, ऐसा सयुक्तिक ऐसा
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