रागमवलम्बते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःख-
मेवानुभवति ।।७७।।
अथैवमवधारितशुभाशुभोपयोगाविशेषः समस्तमपि रागद्वेषद्वैतमपहासयन्नशेषदुःख- क्षयाय सुनिश्चितमनाः शुद्धोपयोगमधिवसति —
विपरीतदर्शनचारित्रमोहप्रच्छादितः सुवर्णलोहनिगडद्वयसमानपुण्यपापद्वयबद्धः सन् संसाररहितशुद्धात्मनो
विपरीतं संसारं भ्रमतीत्यर्थः ।।७७।। अथैवं शुभाशुभयोः समानत्वपरिज्ञानेन निश्चितशुद्धात्मतत्त्वः सन्
निर्भरमयरूपसे (-गाढरूपसे) अवलम्बित है, वह जीव वास्तवमें चित्तभूमिके उपरक्त होनेसे
(-चित्तकी भूमि कर्मोपाधिके निमित्तसे रंगी हुई – मलिन विकृत होनेसे) जिसने शुद्धोपयोग
है तबतक अर्थात् सदाके लिये) शारीरिक दुःखका ही अनुभव करता है ।
भावार्थ : — जैसे सोनेकी बेडी और लोहेकी बेडी दोनों अविशेषरूपसे बाँधनेका ही काम करती हैं उसीप्रकार पुण्य -पाप दोनों अविशेषरूपसे बन्धन ही हैं । जो जीव पुण्य और पापकी अविशेषताको कभी नहीं मानता उसका उस भयंकर संसारमें परिभ्रमणका कभी अन्त नहीं आता ।।७७।।
अब, इसप्रकार शुभ और अशुभ उपयोगकी अविशेषता अवधारित करके, समस्त रागद्वेषके द्वैतको दूर करते हुए, अशेष दुःखका क्षय करनेका मनमें दृढ़ निश्चय करके शुद्धोपयोगमें निवास करता है (-उसे अंगीकार करता है ) : — १. पुण्य और पापमें अन्तर होनेका मत अहंकारजन्य (अविद्याजन्य, अज्ञानजन्य है) ।
विदितार्थ ए रीत, रागद्वेष लहे न जे द्रव्यो विषे, शुद्धोपयोगी जीव ते क्षय देहगत दुःखनो करे. ७८.