एवमुक्तक्रमेण शुभाशुभोपयोगद्वैतमिव सुखदुःखद्वैतमिव च न खलु परमार्थतः पुण्यपापद्वैतमवतिष्ठते, उभयत्राप्यनात्मधर्मत्वाविशेषत्वात् । यस्तु पुनरनयोः कल्याणकालायस- पापयोर्व्याख्यानमुपसंहरति — ण हि मण्णदि जो एवं न हि मन्यते य एवम् । किम् । णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं पुण्यपापयोर्निश्चयेन विशेषो नास्ति । स किं करोति । हिंडदि घोरमपारं संसारं हिण्डति भ्रमति । कम् । संसारम् । कथंभूतम् । घोरम् अपारं चाभव्यापेक्षया । कथंभूतः । मोहसंछण्णो मोहप्रच्छादित इति । तथाहि – द्रव्यपुण्यपापयोर्व्यवहारेण भेदः, भावपुण्यपापयोस्तत्फलभूतसुखदुःखयोश्चाशुद्धनिश्चयेन भेदः,
अब, पुण्य और पापकी अविशेषताका निश्चय करते हुए (इस विषयका) उपसंहार करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [पुण्यपापयोः ] पुण्य और पापमें [विशेषः नास्ति ] अन्तर नहीं है [इति ] ऐसा [यः ] जो [न हि मन्यते ] नहीं मानता, [मोहसंछन्नः ] वह मोहाच्छादित होता हुआ [घोर अपारं संसारं ] घोर अपार संसारमें [हिण्डति ] परिभ्रमण करता है ।।७७।।
टीका : — यों पूर्वोक्त प्रकारसे, शुभाशुभ उपयोगके द्वैतकी भाँति और सुखदुःखके द्वैतकी भाँति, परमार्थसे पुण्यपापका द्वैत नहीं टिकता – नहीं रहता, क्योंकि दोनोंमें अनात्मधर्मत्व अविशेष अर्थात् समान है । (परमार्थसे जैसे शुभोपयोग और अशुभोपयोगरूप द्वैत विद्यमान नहीं है, जैसे १सुख और दुःखरूप द्वैत विद्यमान नहीं है, उसीप्रकार पुण्य और पापरूप द्वैतका भी अस्तित्व नहीं है; क्योंकि पुण्य और पाप दोनों आत्माके धर्म न होनेसे निश्चयसे समान ही हैं ।) १. सुख = इन्द्रियसुख