हि सदशनायोदन्यावृषस्यादिभिस्तृष्णाव्यक्तिभिरुपेतत्वात् अत्यन्ताकुलतया, विच्छिन्नं हि
सदसद्वेद्योदयप्रच्यावितसद्वेद्योदयप्रवृत्ततयाऽनुभवत्वादुद्भूतविपक्षतया, बन्धकारणं हि सद्विषयो-
पभोगमार्गानुलग्नरागादिदोषसेनानुसारसंगच्छमानघनकर्मपांसुपटलत्वादुदर्कदुःसहतया, विषमं
हि सदभिवृद्धिपरिहाणिपरिणतत्वादत्यन्तविसंष्ठुलतया च दुःखमेव भवति । अथैवं पुण्यमपि
पापवद् दुःखसाधनमायातम् ।।७६।।
प्रभृत्यनेकापध्यानवशेन भाविनरकादिदुःखोत्पादककर्मबन्धोत्पादकत्वाद्बन्धकारणमिन्द्रियसुखं, अतीन्द्रिय-
सुखं तु सर्वापध्यानरहितत्वादबन्धकारणम् । विसमं विगतः शमः परमोपशमो यत्र तद्विषममतृप्तिकरं
हानिवृद्धिसहितत्वाद्वा विषमं, अतीन्द्रियसुखं तु परमतृप्तिकरं हानिवृद्धिरहितम् । जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं
दुक्खमेव तहा यदिन्द्रियैर्लब्धं संसारसुखं तत्सुखं यथा पूर्वोक्तपञ्चविशेषणविशिष्टं भवति तथैव
दुःखमेवेत्यभिप्रायः ।।७६।। एवं पुण्यानि जीवस्य तृष्णोत्पादकत्वेन दुःखकारणानि भवन्तीति कथनरूपेण
द्वितीयस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । अथ निश्चयेन पुण्यपापयोर्विशेषो नास्तीति कथयन् पुण्य-
१. च्युत करना = हटा देना; पदभ्रष्ट करना; (सातावेदनीयका उदय उसकी स्थिति अनुसार रहकर हट जाता
है और असाता वेदनीयका उदय आता है)
२. घन पटल = सघन (गाढ़) पर्त, बड़ा झुण्ड ।
१३०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(२) ‘बाधासहित’ होता हुआ खाने, पीने और मैथुनकी इच्छा इत्यादि तृष्णाकी व्यक्तियोंसे
(-तृष्णाकी प्रगटताओंसे) युक्त होनेसे अत्यन्त आकुल है, (३)‘विच्छिन्न’ होता हुआ
असातावेदनीयका उदय जिसे १च्युत कर देता है ऐसे सातावेदनीयके उदयसे प्रवर्तमान होता
हुआ अनुभवमें आता है, इसलिये विपक्षकी उत्पत्तिवाला है, (४) ‘बन्धका कारण’ होता
हुआ विषयोपभोगके मार्गमें लगी हुई रागादि दोषोंकी सेनाके अनुसार कर्मरजके २घन
पटलका सम्बन्ध होनेके कारण परिणामसे दुःसह है, और (५) ‘विषम’ होता हुआ हानि –
वृद्धिमें परिणमित होनेसे अत्यन्त अस्थिर है; इसलिये वह (इन्द्रियसुख) दुःख ही है ।
जब कि ऐसा है (इन्द्रियसुख दुःख ही है) तो पुण्य भी, पापकी भाँति, दुःखका
साधन है ऐसा फलित हुआ ।
भावार्थ : — इन्द्रियसुख दुःख ही है, क्योंकि वह पराधीन है, अत्यन्त आकुल है,
विपक्षकी (-विरोधकी) उत्पत्तिवाला है, परिणामसे दुःस्सह है, और अत्यन्त अस्थिर है ।
इससे यह सिद्ध हुआ कि पुण्य भी दुःखका ही साधन है ।।७६।।