टीकायें श्रुतकेवलीके वचनों जैसी हैं । जैसे मूल शास्त्रकारके शास्त्र अनुभव – युक्ति आदि
समस्त समृद्धियोंसे समृद्ध हैं वैसे ही टीकाकारकी टीकायें भी उन उन सर्व समृद्धियोंसे
विभूषित हैं । शासनमान्य भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवने मानो कि वे कुंदकुंदभगवान्के हृदयमें
पैठ गये हों इसप्रकारसे उनके गंभीर आशयोंको यथार्थतया व्यक्त करके उनके गणधर जैसा
कार्य किया है । श्री अमृतचंद्राचार्यदेव द्वारा रचित काव्य भी अध्यात्मरस और आत्मानुभवकी
मस्तीसे भरपूर हैं । श्री समयसारकी टीकामें आनेवाले काव्यों (कलशों)ने श्री पद्मप्रभदेव
जैसे समर्थ मुनिवरों पर गहरी छाप जमाई है, और आज भी तत्त्वज्ञान तथा अध्यात्मरससे
भरे हुए वे मधुर कलश अध्यात्मरसिकोंके हदयके तारको झनझना डालते हैं ।
अध्यात्मकविके रूपमें श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवका स्थान अद्वितीय है ।
प्रवचनसारमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने २७५ गाथाओंकी रचना प्राकृतमें की है ।
उसपर श्री अमृतचन्द्राचार्यने तत्त्वदीपिका नामक तथा श्री जयसेनाचार्यने तात्पर्यवृत्ति नामक
संस्कृत टीकाकी रचना की है । श्री पांडे हेमराजजीने तत्त्वदीपिकाका भावार्थ हिन्दीमें लिखा
है, जिसका नाम ‘बालावबोधभाषाटीका’ रखा है । विक्रम संवत् १९६९में श्री
परमश्रुतप्रभावक मण्डल द्वारा प्रकाशित हिन्दी प्रवचनसारमें मूल गाथायें, दोनों संस्कृत
टीकायें, और श्री हेमराजजीकृत हिन्दी बालावबोधभाषाटीका मुद्रित हुई है । अब इस
प्रकाशित गुजराती प्रवचनसारमें मूल गाथायें, उनका गुजराती पद्यानुवाद, संस्कृत तत्त्वदीपिका
टीका और उन गाथा व टीकाका अक्षरशः गुजराती अनुवाद प्रगट किया गया है । जहाँ कुछ
विशेष स्पष्टीकरण करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई है वहाँ कोष्ठकमें अथवा ‘भावार्थ’में या
फू टनोटमें स्पष्टता की गई है । उस स्पष्टता करनेमें बहुत सी जगह श्री जयसेनाचार्यकी
‘तात्पर्यवृत्ति’ अत्यन्त उपयोगी हुई है और कही कहीं श्री हेमराजजीकृत
बालावबोधभाषाटीकाका भी आधार लिया है । श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल द्वारा प्रकाशित
प्रवचनसारमें मुद्रित संस्कृत टीकाको हस्तलिखित प्रतियोंसे मिलान करने पर उसमें कहीं कहीं
जो अल्प अशुद्धियाँ मालूम हुई वे इसमें ठीक कर ली गई हैं ।
यह अनुवाद करनेका महाभाग्य मुझे प्राप्त हुआ, जो कि मेरे लिये अत्यन्त हर्षका
कारण है । परमपूज्य अध्यात्ममूर्ति सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीके आश्रयमें इस गहन
शास्त्रका अनुवाद हुआ है । अनुवाद करनेकी सम्पूर्ण शक्ति मुझे पूज्यपाद सद्गुरुदेवसे ही
प्राप्त हुई है । परमोपकारी सद्गुरुदेवके पवित्र जीवनके प्रत्यक्ष परिचयके बिना और उनके
आध्यात्मिक उपदेशके बिना इस पामरको जिनवाणीके प्रति लेशमात्र भी भक्ति या श्रद्धा
कहाँसे प्रगट होती, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव और उनके शास्त्रोंकी रंचमात्र महिमा कहाँसे
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