मत्यस्यात्मनः स्वभाव एव स्थितिमासूत्रयन्ति, ते खलु सहजविजृम्भितानेकान्तदृष्टिप्रक्षपित-
समस्तैकान्तदृष्टिपरिग्रहग्रहा मनुष्यादिगतिषु तद्विग्रहेषु चाविहिताहंकारममकारा
अनेकापवरकसंचारितरत्नप्रदीपमिवैकरूपमेवात्मानमुपलभमाना अविचलितचेतनाविलास-
मात्रमात्मव्यवहारमुररीकृत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमनाश्रयन्तो विश्रान्त-
रागद्वेषोन्मेषतया परममौदासीन्यमवलंबमाना निरस्तसमस्तपरद्रव्यसंगतितया स्वद्रव्येणैव केवलेन
संगतत्वात्स्वसमया जायन्ते
।
अतः स्वसमय एवात्मन -स्तत्त्वम् ।।९४।।
निरताः जीवाः परसमइग त्ति णिद्दिट्ठा ते परसमया इति निर्दिष्टाः क थिताः । तथाहितथाहि —
मनुष्यादिपर्यायरूपोऽहमित्यहङ्कारो भण्यते, मनुष्यादिशरीरं तच्छरीराधारोत्पन्नपञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वरूपं
च ममेति ममकारो भण्यते, ताभ्यां परिणताः ममकाराहङ्काररहितपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतेश्च्युता ये ते
क र्मोदयजनितपरपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो भण्यन्ते । आदसहावम्हि ठिदा ये पुनरात्मस्वरूपे
स्थितास्ते सगसमया मुणेदव्वा स्वसमया मन्तव्या ज्ञातव्या इति । तद्यथातद्यथा — अनेकापवरक संचारितैक -
रत्नप्रदीप इवानेक शरीरेष्वप्येकोऽहमिति दृढसंस्कारेण निजशुद्धात्मनि स्थिता ये ते क र्मोदयजनित-
पर्यायपरिणतिरहितत्वात्स्वसमया भवन्तीत्यर्थः ।।९४।। अथ द्रव्यस्य सत्तादिलक्षणत्रयं सूचयति —
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
१६९
प्र २२
हैं (-लीन होते हैं), वे — जिन्होंने सहज -विकसित अनेकान्तदृष्टि से समस्त एकान्तदृष्टिके
१परिग्रहके आग्रह प्रक्षीण कर दिये हैं, ऐसे — मनुष्यादि गतियोंमें और उन गतियोंके शरीरोंमें
अहंकार – ममकार न करके अनेक कक्षों (कमरों) में २संचारित रत्नदीपककी भाँति एकरूप
ही आत्माको उपलब्ध (-अनुभव) करते हुये, अविचलित -चेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहारको
अंगीकार करके, जिसमें समस्त क्रियाकलापसे भेंट की जाती है ऐसे मनुष्यव्यवहारका आश्रय
नहीं करते हुये, रागद्वेषका उन्मेष (प्राकटय) रुक जानेसे परम उदासीनताका आलम्बन लेते
हुये, समस्त परद्रव्योंकी संगति दूर कर देनेसे मात्र स्वद्रव्यके साथ ही संगतता होनेसे वास्तवमें
३स्वसमय होते हैं अर्थात् स्वसमयरूप परिणमित होते हैं ।
इसलिये स्वसमय ही आत्माका तत्त्व है ।
१. परिग्रह = स्वीकार; अंगीकार ।
२. संचारित = लेजाये गये । (जैसे भिन्न -भिन्न कमरोंमें लेजाया गया रत्नदीपक एकरूप ही है, वह किंचित्मात्र
भी कमरेके रूपमें नहीं होता, और न कमरेकी क्रिया करता है, उसीप्रकार भिन्न -भिन्न शरीरोंमें प्रविष्ट
होनेवाला आत्मा एकरूप ही है, वह किंचित्मात्र भी शरीररूप नहीं होता और न शरीरकी क्रिया करता
है – इसप्रकार ज्ञानी जानता है ।)
३. जो जीव स्वके साथ एकत्वकी मान्यतापूर्वक (स्वके साथ) युक्त होता है उसे स्व -समय कहा जाता
।