भावार्थ : — ‘मैं मनुष्य हूँ, शरीरादिक समस्त क्रियाओंको मैं करता हूँ, स्त्री -पुत्र- धनादिके ग्रहण -त्यागका मैं स्वामी हूँ’ इत्यादि मानना सो मनुष्यव्यवहार (मनुष्यरूप प्रवृत्ति) है; ‘मात्र अचलित चेतना वह ही मैं हूँ’ ऐसा मानना — परिणमित होना सो आत्मव्यवहार (आत्मारूप प्रवृत्ति) है ।
जो मनुष्यादिपर्यायमें लीन हैं, वे एकान्तदृष्टिवाले लोग मनुष्यव्यवहारका आश्रय करते हैं, इसलिये रागी -द्वेषी होते हैं और इसप्रकार परद्रव्यरूप कर्मके साथ सम्बन्ध करते होनेसे वे परसमय हैं; और जो भगवान आत्मस्वभावमें ही स्थित हैं वे अनेकान्तदृष्टिवाले लोग मनुष्यव्यवहारका आश्रय नहीं करके आत्मव्यवहारका आश्रय करते हैं, इसलिये रागी -द्वेषी नहीं होते अर्थात् परम उदासीन रहते हैं और इसप्रकार परद्रव्यरूप कर्मके साथ सम्बन्ध न करके मात्र स्वद्रव्यके साथ ही सम्बन्ध करते हैं, इसलिये वे स्वसमय हैं ।।९४।।
अन्वयार्थ : — [अपरित्यक्तस्वभावेन ] स्वभावको छोड़े बिना [यत् ] जो [उत्पादव्ययध्रुवत्वसंबद्धम् ] उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यसंयुक्त है [च ] तथा [गुणवत् सपर्यायं ] गुणयुक्त और पर्यायसहित है, [तत् ] उसे [द्रव्यम् इति ] ‘द्रव्य’ [ब्रुवन्ति ] कहते हैं ।।९५।।
छोडया विना ज स्वभावने उत्पाद -व्यय -ध्रुवयुक्त छे, वळी गुण ने पर्यय सहित जे, ‘द्रव्य’ भाख्युं तेहने. ९५.