Pravachansar (Hindi).

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१८०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इह विविधलक्षणानां लक्षणमेकं सदिति सर्वगतम्
उपदिशता खलु धर्मं जिनवरवृषभेण प्रज्ञप्तम् ।।९७।।

इह किल प्रपंचितवैचित्र्येण द्रव्यान्तरेभ्यो व्यावृत्य वृत्तेन प्रतिद्रव्यं सीमानमासूत्रयता विशेषलक्षणभूतेन च स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि सर्वद्रव्याणामस्तमितवैचित्र्यप्रपंच प्रवृत्य वृत्तं प्रतिद्रव्यमासूत्रितं सीमानं भिन्दत्सदिति सर्वगतं सामान्यलक्षणभूतं सादृश्यास्तित्वमेकं खल्ववबोधव्यम् एवं सदित्यभिधानं सदिति परिच्छेदनं च सर्वार्थपरामर्शि स्यात् यदि पुनरिदमेवं न स्यात्तदा किंचित्सदिति किंचिदसदिति किंचित्सच्चासच्चेति किंचिदवाच्यमिति च स्यात् तत्तु विप्रतिषिद्धमेव प्रसाध्यं चैतदनोकहवत् यथा हि बहूनां बहुविधानामनो- समस्तशेषद्रव्याणामपि व्यवस्थापनीयमित्यर्थः ।।९६।। अथ सादृश्यास्तित्वशब्दाभिधेयां महासत्तां प्रज्ञापयतिइह विविहलक्खणाणं इह लोके प्रत्येकसत्ताभिधानेन स्वरूपास्तित्वेन विविधलक्षणानां भिन्नलक्षणानां चेतनाचेतनमूर्तामूर्तपदार्थानां लक्खणमेगं तु एकमखण्डलक्षणं भवति किं कर्तृ सदित्ति सर्वं सदिति महासत्तारूपम् किंविशिष्टम् सव्वगयं संकरव्यतिकरपरिहाररूपस्वजात्यविरोधेन

अब यह (नीचे अनुसार) सादृश्य -अस्तित्वका कथन है :

अन्वयार्थ :[धर्मं ] धर्मका [खलु ] वास्तवमें [उपदिशता ] उपदेश करते हुये [जिनवरवृषभेण ] जिनवरवृषभने [इह ] इस विश्वमें [विविधलक्षणानां ] विविध लक्षणवाले (भिन्न भिन्न स्वरूपास्तित्ववाले सर्व) द्रव्योंका [सत् इति ] ‘सत्’ ऐसा [सर्वगतं ] सर्वगत [लक्षणं ] लक्षण (सादृश्यास्तित्व) [एकं ] एक [प्रज्ञप्तम् ] कहा है ।।९७।।

टीका :इस विश्वमें, विचित्रताको विस्तारित करते हुए (विविधता -अनेकताको दिखाते हुए), अन्य द्रव्योंसे व्यावृत्त रहकर प्रवर्तमान, और प्रत्येक द्रव्यकी सीमाको बाँधते हुए ऐसे विशेषलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वसे (समस्त द्रव्य) लक्षित होते हैं फि र भी सर्व द्रव्योंका, विचित्रताके विस्तारको अस्त करता हुआ, सर्व द्रव्योंमें प्रवृत्त होकर रहनेवाला, और प्रत्येक द्रव्यकी बँधी हुई सीमाकी अवगणना करता हुआ, ‘सत्’ ऐसा जो सर्वगत सामान्यलक्षणभूत सादृश्यास्तित्व है वह वास्तवमें एक ही जानना चाहिए इसप्रकार ‘सत्’ ऐसा कथन और ‘सत्’ ऐसा ज्ञान सर्व पदार्थोंका परामर्श करनेवाला है यदि वह ऐसा (सर्वपदार्थपरामर्शी) न हो तो कोई पदार्थ सत्, (अस्तित्ववाला) कोई असत् (अस्तित्व रहित), कोई सत् तथा असत् और कोई अवाच्य होना चाहिये; किन्तु वह तो विरुद्ध ही है, और यह (‘सत्’ ऐसा कथन और ज्ञानके सर्वपदार्थपरामर्शी होनेकी बात) तो सिद्ध हो सकती है, वृक्षकी भाँति १. जिनवरवृषभ = जिनवरोंमें श्रेष्ठ; तीर्थंकर २. सर्वगत = सर्वमें व्यापनेवाला ३. व्यावृत्त = पृथक्; अलग; भिन्न ४. परामर्श = स्पर्श; विचार; लक्ष; स्मरण