द्रव्यस्य गुणिन इति तयोर्न प्रदेशविभागः । एवमपि तयोरन्यत्वमस्ति तल्लक्षणसद्भावात् ।
यच्च किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः
समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः; तथा या
ऐसा होने पर भी उनमें (-सत्ता और द्रव्यमें) अन्यत्व है, क्योंकि (उनमें) अन्यत्वके लक्षणका सद्भाव है । १अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है । वह तो सत्ता और द्रव्यके है ही, क्योंकि गुण और गुणीके २तद्भावका अभाव होता है — शुक्लत्व और वस्त्रकी भाँति । वह इस प्रकार है कि : — जैसे एक चक्षुइन्द्रियके विषयमें आनेवाला और अन्य सब इन्द्रियोंके समूहको गोचर न होनेवाला शुक्लत्व गुण है वह समस्त इन्द्रिय समूहको गोचर होनेवाला ऐसा वस्त्र नहीं है; और जो समस्त इन्द्रियसमूहको गोचर होनेवाला वस्त्र है वह एक चक्षुइन्द्रियके विषयमें आनेवाला तथा अन्य समस्त इन्द्रियोंके समूहको गोचर न होनेवाला ऐसा शुक्लत्व गुण नहीं है, इसलिये उनके तद्भावका अभाव है; इसीप्रकार, ३किसीके आश्रय रहनेवाली, १. अतद्भाव = (कथंचित्) उसका न होना; (कथंचित्) उसरूप न होना (कथंचित्) अतद्रूपता । द्रव्य
कथंचित् सत्तास्वरूपसे नहीं है और सत्ता कथंचित् द्रव्यरूपसे नहीं है, इसलिये उनके अतद्भाव है । २. तद्भाव = उसका होना, उसरूप होना, तद्रूपता । ३. सत्ता द्रव्यके आश्रयसे रहती है, द्रव्यको किसीका आश्रय नहीं है । [जैसे घड़ेमें घी रहता है, उसीप्रकार
उसीप्रकार द्रव्यमें सत्ता है । ]