न खलु द्रव्यात्पृथग्भूतो गुण इति वा पर्याय इति वा कश्चिदपि स्यात्; यथा सुवर्णात्पृथग्भूतं तत्पीतत्वादिकमिति वा तत्कुण्डलत्वादिकमिति वा । अथ तस्य तु द्रव्यस्य स्वरूपवृत्तिभूतमस्तित्वाख्यं यद्द्रव्यत्वं स खलु तद्भावाख्यो गुण एव भवन् किं हि द्रव्यात्पृथग्भूतत्वेन वर्तते । न वर्तत एव । तर्हि द्रव्यं सत्ताऽस्तु स्वयमेव ।।११०।।
अन्वयार्थ : — [इह ] इस विश्वमें [गुणः इति वा कश्चित् ] गुण ऐसा कुछ [पर्यायः इति वा ] या पर्याय ऐसा कुछ [द्रव्यं विना नास्ति ] द्रव्यके बिना (-द्रव्यसे पृथक्) नहीं होता; [द्रव्यत्वं पुनः भावः ] और द्रव्यत्व वह भाव है (अर्थात् अस्तित्व गुण है); [तस्मात् ] इसलिये [द्रव्यं स्वयं सत्ता ] द्रव्य स्वयं सत्ता (अस्तित्व) है ।।११०।।
टीका : — वास्तवमें द्रव्यसे पृथग्भूत (भिन्न) ऐसा कोई गुण या ऐसी कोई पर्याय कुछ नहीं होता; जैसे — सुवर्णसे पृथग्भूत उसका पीलापन आदि या उसका कुण्डलत्वादि नहीं होता तदनुसार । अब, उस द्रव्यके स्वरूपकी वृत्तिभूत जो ‘अस्तित्व’ नामसे कहा जानेवाला द्रव्यत्व वह उसका ‘भाव’ नामसे क हा जानेवाला गुण ही होनेसे, क्या वह द्रव्यसे पृथक्रूप वर्तता है ? नहीं ही वर्तता । तब फि र द्रव्य स्वयमेव सत्ता हो ।।११०।।