Pravachansar (Hindi). Gatha: 116.

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श्रान्तसमुच्चार्यमाणस्यात्कारामोघमन्त्रपदेन समस्तमपि विप्रतिषेधविषमोहमुदस्यति ।।११५।।
अथ निर्धार्यमाणत्वेनोदाहरणीकृतस्य जीवस्य मनुष्यादिपर्यायाणां क्रियाफलत्वेनान्यत्वं
द्योतयति
एसो त्ति णत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता
किरिया हि णत्थि अफला धम्मो जदि णिप्फलो परमो ।।११६।।
सर्वपदार्थेषु द्रष्टव्यमिति ।।११५।। एवं नयसप्तभङ्गीव्याख्यानगाथयाष्टमस्थलं गतम् एवं पूर्वोक्त-
प्रकारेण प्रथमा नमस्कारगाथा, द्रव्यगुणपर्यायकथनरूपेण द्वितीया, स्वसमयपरसमयप्रतिपादनेन
तृतीया, द्रव्यस्य सत्तादिलक्षणत्रयसूचनरूपेण चतुर्थीति स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन पीठिकास्थलम्
तदनन्तरमवान्तरसत्ताकथनरूपेण प्रथमा, महासत्तारूपेण द्वितीया, यथा द्रव्यं स्वभावसिद्धं तथा
सत्तागुणोऽपीति कथनरूपेण तृतीया, उत्पादव्ययध्रौव्यत्वेऽपि सत्तैव द्रव्यं भवतीति कथनेन चतुर्थीति

गाथाचतुष्टयेन सत्तालक्षणविवरणमुख्यता
तदनन्तरमुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणविवरणमुख्यत्वेन गाथात्रयं,
तदनन्तरं द्रव्यपर्यायकथनेन गुणपर्यायक थनेन च गाथाद्वयं, ततश्च द्रव्यस्यास्तित्वस्थापनारूपेण प्रथमा,
२२प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
सप्तभंगी सतत् सम्यक्तया उच्चारित करने पर स्यात्काररूपी अमोघ मंत्र पदके द्वारा
‘एव’ कारमें रहनेवाले समस्त विरोधविषके मोहको दूर करती है ।।११५।।
अब, जिसका निर्धार करना है, इसलिये जिसे उदाहरणरूप बनाया गया है ऐसे
जीवकी मनुष्यादि पर्यायें क्रियाका फल हैं इसलिये उनका अन्यत्व (अर्थात् वे पर्यायें
बदलती रहती हैं, इसप्रकार) प्रकाशित करते हैं :
१. स्याद्वादमें अनेकान्तका सूचक ‘स्यात्’ शब्द सम्यक्तया प्रयुक्त होता है वह ‘स्यात् पद एकान्तवादमें
रहनेवाले समस्त विरोधरूपी विषके भ्रमको नष्ट करनेके लिये रामबाण मंत्र है
२. अनेकान्तात्मक वस्तुस्वभावकी अपेक्षासे रहित एकान्तवादमें मिथ्या एकान्तको सूचित करता हुआ जो
‘एव’ या ‘ही’ शब्द प्रयुक्त होता है वह वस्तुस्वभावसे विपरीत निरूपण करता है, इसलिये उसका यहाँ
निषेध किया है
(अनेकान्तात्मक वस्तुस्वभावका ध्यान चूके बिना, जिस अपेक्षासे वस्तुका कथन चल
रहा हो उस अपेक्षासे उसका निर्णीतत्त्वनियमबद्धत्वनिरपवादत्व बतलानेके लिये ‘एव’ या ‘ही’
शब्द प्रयुक्त होता है, उसका यहाँ निषेध नहीं समझना चाहिये )
नथी ‘आ ज’ एवो कोई, ज्यां किरिया स्वभावनिपन्न छे;
किरिया नथी फ लहीन, जो निष्फ ळ धरम उत्कृष्ट छे . ११६.