इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसन्निधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षण- विवर्तनस्य क्रिया किल स्वभावनिर्वृत्तैवास्ति । ततस्तस्य मनुष्यादिपर्यायेषु न कश्चनाप्येष एवेति टंकोत्कीर्णोऽस्ति, तेषां पूर्वपूर्वोपमर्दप्रवृत्तक्रियाफलत्वेनोत्तरोत्तरोपमर्द्यमानत्वात्; फल- पृथक्त्वलक्षणस्यातद्भावाभिधानान्यत्वलक्षणस्य च कथनरूपेण द्वितीया, संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदरूप- स्यातद्भावस्य विवरणरूपेण तृतीया, तस्यैव दृढीकरणार्थं चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन सत्ताद्रव्ययोर- भेदविषये युक्तिकथनमुख्यता । तदनन्तरं सत्ताद्रव्ययोर्गुणगुणिकथनेन प्रथमा, गुणपर्यायाणां द्रव्येण सहाभेदकथनेन द्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयम् । तदनन्तरं द्रव्यस्य सदुत्पादासदुत्पादयोः सामान्यव्याख्यानेन विशेषव्याख्यानेन च गाथाचतुष्टयं, ततश्च सप्तभङ्गीकथनेन गाथैका चेति समुदायेन
अन्वयार्थ : — [एषः इति कश्चित् नास्ति ] (मनुष्यादिपर्यायोंमें) ‘यही’ ऐसी कोई (शाश्वत पर्याय) नहीं हैं; [स्वभावनिर्वृत्ता क्रिया नास्ति न ] (क्योंकि संसारी जीवके) स्वभावनिष्पन्न क्रिया नहीं हो सो बात नहीं है; (अर्थात् विभावस्वभावसे उत्पन्न होनेवाली राग- द्वेषमय क्रिया अवश्य है ।) [यदि ] और यदि [परमः धर्मः निःफलः ] परमधर्म अफल है तो [क्रिया हि अफला नास्ति ] क्रिया अवश्य अफल नहीं है; (अर्थात् एक वीतराग भाव ही मनुष्यादिपर्यायरूप फल उत्पन्न नहीं करती; राग -द्वेषमय क्रिया तो अवश्य वह फल उत्पन्न करती है ।)।।११६।।
टीका : — यहाँ (इस विश्वमें), अनादिकर्मपुद्गलकी उपाधिके सद्भावके आश्रय (-कारण) से जिसके प्रतिक्षण १विवर्त्तन होता रहता है ऐसे संसारी जीवको क्रिया वास्तवमें स्वभाव निष्पन्न ही है; इसलिये उसके मनुष्यादिपर्यायोंमेंसे कोई भी पर्याय ‘यही’ है ऐसी टंकोत्कीर्ण नहीं है; क्योंकि वे पर्यायें पूर्व -पूर्व पर्यायोंके नाशमें प्रवर्तमान क्रिया फलरूप होनेसे २उत्तर -उत्तर पर्यायोंके द्वारा नष्ट होती हैं । और क्रियाका फल तो, मोहके साथ ३मिलनका नाश १. विवर्तन = विपरिणमन; पलटा (फे रफार) होते रहना । २. उत्तर -उत्तर = बादकी । (मनुष्यादिपर्यायें रागद्वेषमय क्रियाकी फलरूप हैं, इसलिये कोई भी पर्याय पूर्व
पर्यायको नष्ट करती है और बादकी पर्यायसे स्वयं नष्ट होती है । ३. मिलन = मिल जाना; मिश्रितपना; संबंध; जुड़ान ।