Pravachansar (Hindi). Gatha: 117.

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रणोरुच्छिन्नाण्वन्तरसंगमस्य परिणतिरिव द्वयणुककार्यस्येव मनुष्यादिकार्यस्यानिष्पादकत्वात
परमद्रव्यस्वभावभूततया परमधर्माख्या भवत्यफलैव ।।११६।।
अथ मनुष्यादिपर्यायाणां जीवस्य क्रियाफलत्वं व्यनक्ति
कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण
अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ।।११७।।
परमः नीरागपरमात्मोपलम्भपरिणतिरूपः आगमभाषया परमयथाख्यातचारित्ररूपो वा योऽसौ परमो
धर्मः, स केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकत्वात्सफलोऽपि नरनारकादि-

पर्यायकारणभूतं ज्ञानावरणादिकर्मबन्धं नोत्पादयति, ततः कारणान्निष्फलः
ततो ज्ञायते
नरनारकादिसंसारकार्यं मिथ्यात्वरागादिक्रियायाः फलमिति अथवास्य सूत्रस्य द्वितीयव्याख्यानं
क्रियतेयथा शुद्धनयेन रागादिविभावेन न परिणमत्ययं जीवस्तथैवाशुद्धनयेनापि न परिणमतीति
यदुक्तं सांख्येन तन्निराकृतम् कथमिति चेत् अशुद्धनयेन मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणत-
जीवानां नरनारकादिपर्यायपरिणतिदर्शनादिति एवं प्रथमस्थले सूत्रगाथा गता ।।११६।। अथ
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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मनुष्यादिकार्यकी निष्पादक होनेसे सफल ही है; और, जैसे दूसरे अणुके साथ संबंध जिसका
नष्ट हो गया है ऐसे अणुकी परिणति द्विअणुक कार्यकी निष्पादक नहीं है उसीप्रकार, मोहके
साथ मिलनका नाश होने पर वही क्रिया
द्रव्यकी परमस्वभावभूत होनेसे ‘परमधर्म’ नामसे
कही जानेवाली ऐसीमनुष्यादिकार्यकी निष्पादक न होनेसे अफल ही है
भावार्थ :चैतन्यपरिणति वह आत्माकी क्रिया है मोह रहित क्रिया मनुष्यादि-
पर्यायरूप फल उत्पन्न नहीं करती, और मोह सहित क्रिया अवश्य मनुष्यादिपर्यायरूप फल
उत्पन्न करती है मोह सहित भाव एक प्रकारके नहीं होते, इसलिये उसके फलरूप
मनुष्यादिपर्यायें भी टंकोत्कीर्णशाश्वतएकरूप नहीं होतीं ।। ११६।।
अब, यह व्यक्त करते हैं कि मनुष्यादिपर्यायें जीवको क्रियाके फल हैं :
१. मूल गाथामें प्रयुक्त ‘क्रिया’ शब्दसे मोह सहित क्रिया समझनी चाहिये मोह रहित क्रियाको तो ‘परम
धर्म’ नाम दिया गया है
नामाख्य कर्म स्वभावथी निज जीवद्रव्य -स्वभावने
अभिभूत करी तिर्यंच, देव, मनुष्य वा नारक करे. ११७.