रणोरुच्छिन्नाण्वन्तरसंगमस्य परिणतिरिव द्वयणुककार्यस्येव मनुष्यादिकार्यस्यानिष्पादकत्वात्
परमद्रव्यस्वभावभूततया परमधर्माख्या भवत्यफलैव ।।११६।।
अथ मनुष्यादिपर्यायाणां जीवस्य क्रियाफलत्वं व्यनक्ति —
कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण ।
अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ।।११७।।
परमः नीरागपरमात्मोपलम्भपरिणतिरूपः आगमभाषया परमयथाख्यातचारित्ररूपो वा योऽसौ परमो
धर्मः, स केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकत्वात्सफलोऽपि नरनारकादि-
पर्यायकारणभूतं ज्ञानावरणादिकर्मबन्धं नोत्पादयति, ततः कारणान्निष्फलः । ततो ज्ञायते
नरनारकादिसंसारकार्यं मिथ्यात्वरागादिक्रियायाः फलमिति । अथवास्य सूत्रस्य द्वितीयव्याख्यानं
क्रियते — यथा शुद्धनयेन रागादिविभावेन न परिणमत्ययं जीवस्तथैवाशुद्धनयेनापि न परिणमतीति
यदुक्तं सांख्येन तन्निराकृतम् । कथमिति चेत् । अशुद्धनयेन मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणत-
जीवानां नरनारकादिपर्यायपरिणतिदर्शनादिति । एवं प्रथमस्थले सूत्रगाथा गता ।।११६।। अथ
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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मनुष्यादिकार्यकी निष्पादक होनेसे सफल ही है; और, जैसे दूसरे अणुके साथ संबंध जिसका
नष्ट हो गया है ऐसे अणुकी परिणति द्विअणुक कार्यकी निष्पादक नहीं है उसीप्रकार, मोहके
साथ मिलनका नाश होने पर वही क्रिया — द्रव्यकी परमस्वभावभूत होनेसे ‘परमधर्म’ नामसे
कही जानेवाली ऐसी — मनुष्यादिकार्यकी निष्पादक न होनेसे अफल ही है ।
भावार्थ : — चैतन्यपरिणति वह आत्माकी क्रिया है । मोह रहित क्रिया मनुष्यादि-
पर्यायरूप फल उत्पन्न नहीं करती, और मोह सहित १क्रिया अवश्य मनुष्यादिपर्यायरूप फल
उत्पन्न करती है । मोह सहित भाव एक प्रकारके नहीं होते, इसलिये उसके फलरूप
मनुष्यादिपर्यायें भी टंकोत्कीर्ण – शाश्वत – एकरूप नहीं होतीं ।। ११६।।
अब, यह व्यक्त करते हैं कि मनुष्यादिपर्यायें जीवको क्रियाके फल हैं : —
१. मूल गाथामें प्रयुक्त ‘क्रिया’ शब्दसे मोह सहित क्रिया समझनी चाहिये । मोह रहित क्रियाको तो ‘परम
धर्म’ नाम दिया गया है ।
नामाख्य कर्म स्वभावथी निज जीवद्रव्य -स्वभावने
अभिभूत करी तिर्यंच, देव, मनुष्य वा नारक करे. ११७.