विषयमनुमानगम्यमागमगम्यं च, तथा शुद्धपरमाणुद्रव्ये वर्णादिचतुष्टयमप्यतीन्द्रियज्ञानविषयमनुमान- गम्यमागमगम्यं च । यथा वानन्तचतुष्टयस्य संसारिजीवे रागादिस्नेहनिमित्तेन कर्मबन्धवशादशुद्धत्वं
भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तेन द्वि -अणुकादिबन्धावस्थायामशुद्धत्वम् । यथा
वानन्तज्ञानादिचतुष्टयस्य रागादिस्नेहरहितशुद्धात्मध्यानेन शुद्धत्वं भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धगुणाभावे बन्धनेऽसति परमाणुपुद्गलावस्थायां शुद्धत्वमिति ।सद्दो सो पोग्गलो यस्तु शब्दः स
यदि शब्दको (पर्याय न मानकर) गुण माना जाय तो वह क्यों योग्य नहीं है उसकासमाधान : —
प्रथम तो, शब्द अमूर्त द्रव्यका गुण नहीं है क्योंकि गुण -गुणीमें अभिन्न प्रदेशपना होनेसेवे (गुण -गुणी) १एक वेदनसे वेद्य होनेसे अमूर्त द्रव्यको भी श्रवणेन्द्रियका विषयभूतपना आजायगा ।
(दूसरे, शब्दमें) पर्यायके लक्षणद्वारा गुणका लक्षण उत्थापित होनेसे शब्द मूर्त द्रव्यकागुण भी नहीं है । पर्यायका लक्षण कादाचित्कपना (अनित्यपना) है, और गुणका लक्षणनित्यपना है; इसलिये (शब्दमें) अनित्यपनेसे नित्यपनेके उत्थापित होनेसे (अर्थात् शब्द कभी- कभी ही होता है, और नित्य नहीं है, इसलिये) शब्द वह गुण नहीं है । जो वहाँ नित्यपनाहै वह उसे (शब्दको) उत्पन्न करनेवाले पुद्गलोंका और उनके स्पर्शादिक गुणोंका ही है, शब्दपर्यायका नहीं — इसप्रकार अति दृढ़तापूर्वक ग्रहण करना चाहिये ।१. एक वेदनसे वेद्य = एक ज्ञानसे ज्ञात होने योग्य (नैयायिक शब्दको आकाशका गुण मानते हैं किन्तु यह
मान्यता अप्रमाण है । गुण -गुणीके प्रदेश अभिन्न होते हैं, इसलिये जिस इन्द्रियसे गुण ज्ञात होता है उसीसे
गुणी -भी ज्ञात होना चाहिए । शब्द कर्णेन्द्रियसे जाना जाता है, इसलिये आकाश भी कर्णेन्द्रियसे ज्ञात होना
चाहिये । किन्तु वह तो किसी भी इन्द्रियसे ज्ञात होता नहीं है । इसलिये शब्द आकाशादि अमूर्तिक द्रव्योंका