पदार्थस्य तावत्पूर्वसूत्रोदितप्रकारेणोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकमस्तित्वं विद्यते; तच्चास्तित्वं प्रदेशं विना न
इसलिये) नाश और उत्पादकी एकतामें प्रवर्तमान ध्रौव्य कहाँसे हो सकता है ? ऐसा होनेपर त्रिलक्षणता (उत्पादव्ययध्रौव्यता) नष्ट हो जाती है, क्षणभंग (बौद्धसम्मत क्षणविनाश) उल्लसित हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है और क्षणविध्वंसी भाव उत्पन्न होते हैं । इसलिये
१तत्त्वविप्लवके भयसे अवश्य ही वृत्तिका आश्रयभूत कोई वृत्तिमान् ढूँढ़ना – स्वीकार करना योग्य
है । वह तो प्रदेश ही है (अर्थात् वह वृत्तिमान् सप्रदेश ही होता है ), क्योंकि अप्रदेशके अन्वय
तथा व्यतिरेकका अनुविधायित्व असिद्ध है । (जो अप्रदेश होता है वह अन्वय तथा व्यतिरेकोंका
अनुसरण नहीं कर सकता, अर्थात् उसमें ध्रौव्य तथा उत्पाद – व्यय नहीं हो सकते ।)
(प्रश्न : — ) इसप्रकार काल सप्रदेश है तो उसके एकद्रव्यके कारणभूत लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेश क्यों न मानने चाहिये ?
(उत्तर : — ) ऐसा हो तो पर्यायसमय प्रसिद्ध नहीं होता, इसलिये असंख्य प्रदेश माननायोग्य नहीं है । परमाणुके द्वारा प्रदेशमात्र द्रव्यसमयका उल्लंघन करने पर (अर्थात् – परमाणुकेद्वारा एकप्रदेशमात्र कालाणुसे निकटके दूसरे प्रदेशमात्र कालाणु तक मंदगतिसे गमन करने पर) पर्यायसमय प्रसिद्ध होता है । यदि द्रव्यसमय लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी हो तोपर्यायसमयकी सिद्धि कहाँसे होगी ?
‘यदि द्रव्यसमय अर्थात् कालपदार्थ लोकाकाश जितने असंख्य प्रदेशवाला एक द्रव्यहो तो भी परमाणुके द्वारा उसका एक प्रदेश उल्लंघित होनेपर पर्यायसमयकी सिद्धि हो’ ऐसा कहा जाय तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि (उसमें दो दोष आते हैं ) : — १. तत्त्वविप्लव = वस्तुस्वरूपमें अंधाधुन्धी ।