स्वानुभूति होनेपर जीवको कैसा साक्षात्कार होता है ?
स्वानुभूति होनेपर, अनाकुल – आह्लादमय, एक, समस्त ही विश्व पर
तैरता विज्ञानघन परमपदार्थ – परमात्मा अनुभवमें आता है । ऐसे अनुभव बिना
आत्मा सम्यक्रूपसे दृष्टिगोचर नहीं होता — श्रद्धामें नहीं आता, इसलिये
स्वानुभूतिके बिना सम्यग्दर्शनका — धर्मका प्रारम्भ नहीं होता ।
ऐसी स्वानुभूति प्राप्त करनेके लिये जीवको क्या करना ?
स्वानुभूतिकी प्राप्तिके लिये ज्ञानस्वभावी आत्माका चाहे जिस प्रकार भी
दृढ़ निर्णय करना । ज्ञानस्वभावी आत्माका निर्णय दृढ़ करनेमें सहायभूत
तत्त्वज्ञानका — द्रव्योंका स्वयंसिद्ध सत्पना और स्वतन्त्रता, द्रव्य – गुण – पर्याय,
उत्पाद – व्यय – ध्रौव्य, नव तत्त्वका सच्चा स्वरूप, जीव और शरीरकी बिलकुल
भिन्न – भिन्न क्रियाएँ, पुण्य और धर्मके लक्षणभेद, निश्चय – व्यवहार इत्यादि
अनेक विषयोंके सच्चे बोधका — अभ्यास करना चाहिय । तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा
कहे गये ऐसे अनेक प्रयोजनभूत सत्योंके अभ्यासके साथ – साथ सर्व
तत्त्वज्ञानका सिरमौर — मुकुटमणि जो शुद्धद्रव्यसामान्य अर्थात् परम
पारिणामिकभाव अर्थात् ज्ञायकस्वभावी शुद्धात्मद्रव्यसामान्य — जो स्वानुभूतिका
आधार है, सम्यग्दर्शनका आश्रय है, मोक्षमार्गका आलम्बन है, सर्व शुद्धभावोंका
नाथ है — उसकी दिव्य महिमा हृदयमें सर्वाधिकरूपसे अंकित करनेयोग्य है ।
उस निजशुद्धात्मद्रव्य -सामान्यका आश्रय करनेसे ही अतीन्द्रिय आनन्दमय
स्वानुभूति प्राप्त होती है ।
— पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी
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